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वादिराजसूरि
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करते थे । मन्दिर बनानेकी बात तो ऊपर आ चुकी है, रही खेती-बारी, सो जब जागीरी थी तब वह होती ही होगी और आनुषङ्गिक रूपसे वाणिज्य भी । इसी लिए शायद दर्शनसारमें द्राविडसंघको जैनाभास कहा गया है ।
कुष्ठरोगकी कथा वादिराजसूरिके विषयमें एक चमत्कारकारिणी कथा प्रचलित है कि उन्हें कुष्ठरोग हो गया था । एक बार राजाके दरबारमें इसकी चर्चा हुई तो उनके एक अनन्य भक्तने अपने गुरुके अपवादके भयसे झूठ ही कह दिया कि " उन्हें कोई रोग नहीं है ।” इसपर बहस छिड़ गई और आखिर राजाने कहा कि “मैं स्वयं इसकी जाँच करूँगा।” भक्त घबड़ाया हुआ गुरुजीके पास गया और बोला "मेरी लाज अब आपके ही हाथ है, मैं तो कह आया।" इसपर गुरुजीने दिलासा दी और कहा, "धर्मके प्रसादसे सब ठीक होगा, चिन्ता मत करो।" इसके बाद उन्होंने एकीभावस्तोत्रकी रचना की और उसके प्रभावसे उनका कुष्ठ दूर हो गया।
एकीभावकी चन्द्रकीर्ति भट्टारककृत संस्कृत टीकामें यह पूरी कथा तो नहीं दी है परन्तु चौथे श्लोककी टीका करते हुए लिखा है कि " मेरे अन्तःकरणमें जब आप प्रतिष्ठित हैं तब मेरा यह कुष्ठरोगाक्रान्त शरीर यदि सुवर्ण हो जाय तो क्या आश्चर्य है' ?” अर्थात् चन्द्रकीर्तिजी उक्त कथासे परिचित थे । परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं यह कथा बहुत पुरानी नहीं है और उन लोगोंद्वारा गढ़ी गई है जो ऐसे चमत्कारोंसे ही आचार्यों और भट्टारकोंकी प्रतिष्ठाका माप किया करते थे । अमावसके दिन पूनोंके चन्द्रमाका उदय कर देना, चवालीस या अड़तालीस बेड़ियोंको तोड़कर कैद से बाहर निकल आना, साँपके काटे हुए पुत्रका जीवित हो जाना आदि, इस तरहकी और भी अनेक चमत्कारपूर्ण कथायें पिछले भट्टारकोंकी गढ़ी हुई प्रचलित हैं जो असंभव और अप्राकृतिक तो हैं ही, जैनमुनियोके चरित्रको और उनके वास्तविक महत्त्वको भी नीचे गिराती हैं।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि सच्चे मुनि अपने भक्त के भी मिथ्याभाषणका समर्थन नहीं करते और न अपने रोगको छुपानेकी ही कोशिश करते हैं ।
यदि यह घटना सत्य होती तो मल्लिषेणप्रशस्ति (श ० सं० १०५०) तथा दसरे
१ हे जिन, मम स्वान्तगेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्वं प्रतिष्ठः सन् यत इदं मदीयं कुष्ठरोगाक्रान्तं वपुः शरीरं सुवर्णी करोषि, तत्कि चित्रं तत्किमाश्चर्य न किमपि आश्चर्यमित्यर्थः ।