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वादिराजसूरि
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कही है। हमारा अनुमान है कि इसी सूर्यशतक-स्तवनकी कथाके अनुकरणपर वादिराजसूरिके एकीभावस्तोत्रकी कथा गढ़ी गई है।
हिन्दुओंके देवता तो 'कर्तुमक मन्यथाकर्तुं समर्थ' होते हैं, इस लिए उनके विषयमें इस तरहकी कथायें कुछ अर्थ भी रखती हैं परन्तु जिनभगवान् न तो स्तुतियोंसे प्रसन्न होते हैं और न उनमें यह सामर्थ्य है कि किसीके भयंकर रोगको बातकी बातमें दूर कर दें । अतएव जैनधर्मके विश्वासोंके साथ इस तरहकी कथाओंका कोई सामञ्जस्य नहीं बैठता ।
ग्रन्थ-रचना वादिराजसूरिके अभी तक नीचे लिखे पाँच ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं
१ पार्श्वनाथचरित - यह एक १२ सर्गका महाकाव्य है और माणिकचन्द्रजैन-ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो चुका है । इसकी बहुत ही सुन्दर सरस और प्रौढ रचना है । 'पार्श्वनाथकाकुत्स्थचरित' नामसे भी इसका उल्लेख किया गया है ।
२ यशोधरचरित-यह एक चार सर्गका छोटा-सा खण्डकाव्य है जिसमें सब मिलाकर २९६ पद्य हैं । इसे तंजौरके स्व० टी० एस० कुप्पूस्वामी शास्त्रीने बहुत समय पहले प्रकाशित किया था जो अब अनुपलभ्य है। इसकी रचना पार्श्वनाथचरितके बाद हुई थी। क्योंकि इसमें उन्होंने अपनेको पार्श्वनाथचरितका कर्ता बतलाया है।
३ एकीभावस्तोत्र-यह एक छोटा-सा २५ पद्योंका अतिशय सुन्दर स्तोत्र है और 'एकीभावं गत इव मया' से प्रारंभ होने के कारण एकीभाव नामसे प्रसिद्ध है।
४ न्यायविनश्चयविवरण-यह भट्टाकलंकदेवके ' न्यायविनश्चय' का भाष्य है और जैनन्यायके प्रसिद्ध ग्रन्थों में इसकी गणना है । इसकी श्लोकसंख्या २०,००० है । अभी तक यह प्रकाशित नहीं हुआ है।
१ श्रीमन्मयूरभट्टः पूर्वजन्मदुष्टहेतुकगलितकुष्ठजुष्टो ... इत्यादि । २ श्रीपार्श्वनाथकाकुत्स्थचरितं येन कीर्तितम् ।
तेन श्रीवादिराजेन दृब्धा याशोधरी कथा ॥ ५-यशोधरचरित, पर्व १ पहले मैंने भूलसे ' श्रीपार्श्वनाथकाकुत्स्थचरितं ' पदसे पार्वनाथचरित और काकुत्स्थ. चरित नामके दो ग्रन्थ समझ लिये थे । मेरी इस भूलको मेरे बादके लेखकोंने भी दुहराया है । परन्तु ये दो ग्रन्थ होते तो द्विवचनान्तपद होना चाहिए था, जो नहीं है । 'काकुत्स्थ' पार्श्वनाथके वंशका परिचायक है।