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जैनसाहित्य और इतिहास
जडिय, चउमुहेण समप्पिय पद्धड़िय ।" इससे चतुर्मुख निश्चय ही स्वयंभुसे जुदा हैं जिनके पद्धड़िया काव्य ( हरिवंश-पद्मपुराण ) उन्हें प्राप्त थे ।
६ इसी तरह कवि स्वयंभु अपने पउमचरिउमें भी चतुर्मुखको जुदा बतलाते हैं । वे कहते हैं कि चतुर्मुखके शब्द और दंति और भद्रके अर्थ मनोहर होते हैं, परन्तु स्वयंभु काव्यमें शब्द और अर्थ दोनों सुन्दर हैं, तब शेष कविजन क्या करें ?' .
आगे चल कर फिर कहा है कि चतुर्मुखदेवके शब्दोंको, स्वयंभुदेवकी मनोहर जिह्वा ( वाणी ? ) को और भद्रकविके गोग्रहणको आज भी अन्य कवि नहीं पा सकते । इसी तरह जलक्रीडा-वर्णनमें स्वयंभुको, गोग्रह कथा चतुर्मुखदेवको और मत्स्यवेधमें भद्रको आज भी कविजन नहीं पा सकते । ___ इन उद्धरणोंसे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्मुखदेव स्वयंभुसे पृथक् और
उनके पूर्ववर्ती कवि हैं जिनकी रचनामें शब्द-सौन्दर्य विशेष है और जिन्होंने अपने हरिवंशमें गोग्रह-कथा बहुत ही बढ़िया लिखी है।।
७ अपने स्वयंभु-छन्दमें स्वयंभुने पहलेके अनेक कवियोंके पद्य उदाहरण स्वरूप दिये हैं और उनमें चतुर्मुखके ' जहा चउमुहस्स' कहकर ५-६ पद्य उद्धत किये हैं। इससे भी चतुर्मुखका पृथक्त्व सिद्ध होता है ।
१ देखा ‘पउमचरिउ' के प्रारंभिक अंशका दूसरा पद्य ।
२ भद्र अपभ्रंशके हो कवि मालूम होते हैं । उनका कोई महाभारत या हरिवंश होगा जिसके अन्तर्गत 'गोग्रह-कथा' और 'मत्स्य-वेध' नामके अध्याय या पर्व होंगे। चतुर्मुखका तो निश्चय ही हरिवंशपुराण था और उसमें ‘गोग्रह-कथा' थी । क्यों कि अपभ्रंश-कवि धवलने भी अपने हरिवंशपुराणमें चतुर्मुखकी · हरिपाण्डवानां कथा'का उल्लेख किया है
हरिपंडुवाण कहा चउमुहवासेहिं भासियं जम्हा ।
तह विरयमि लोयपिया जेण ण णासेइ ईसण पउरं ।। इसमें चउमुहवासेहिं ( चतुर्मुखव्यासैः ) पद श्लिष्ट है । स्वयंभु-छन्दमें चउमुहुके जो पद्य उदाहरणस्वरूप उद्धत किये हैं, उनमेंसे ४-२, ६-८३, ८६, ११२ पद्योंसे मालूम होता है कि उनका पउमचरिउ भी अवश्य रहा होगा। क्योंकि उनमें राम-कथाके प्रसंग हैं।
३-४ पउमचरिउके प्रारंमिक अंशके पद्य न० ३-४ ।
५ संभव है । पउमचरिउ 'के ये प्रारम्भिक पद्य स्वयं स्वयंभुके रचे हुए न हों, उनके पुत्र त्रिभुवनके हों, फिर भी इनसे चतुर्मुख और स्वयंभुका पृथक्त्व सिद्ध होता है ।