________________
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
३७९
बनाई हुई हैं और इसकी पुष्टि इस बातसे होती है कि अन्तिम सन्धि तककी पुष्पिकाओंमें त्रिभुवन स्वयंभुका नाम दिया हुआ है । परन्तु इन तेरह सन्धियोंमेंसे १०६, १०८, ११० और १११ वी सन्धिके पद्योंमें मुनि जसकित्तिका भी नाम आता है और इससे एक बड़ी भारी उलझन खड़ी हो जाती है । इसमें तो सन्देह नहीं कि इस अन्तिम अंशमें मुनि जसकित्तिका भी कुछ हाथ है, परन्तु वह कितना है इसका ठीक ठीक निर्णय करना कठिन है।
बहुत कुछ सोच विचारके बाद हम इस निर्णयपर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्तिको इस ग्रन्थकी कोई ऐसी जीर्ण शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट भ्रष्ट थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि (ग्वालियर ) के समीप कुमरनगरीके जैनमन्दिरमें व्याख्यान करनेके लिए इसे ठीक किया, अर्थात् जहाँ जहाँ जितना जितना अंश पढ़ा नहीं गया, या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँ जहाँ जोड़ा वहाँ वहाँ अपने परिश्रमके एवजमें अपना नाम भी जोड़ दिया ।
१०९ वी सन्धिके अन्त में वे लिखते हैं कि जिनके मनमें पर्वोके उद्धार करनेका ही राग था, (पर्वसमुद्धरणरागैकमनसा) ऐसे जसकित्ति जतिने कविराजके शेष भागका प्रकृत अर्थ कहा और फिर अपने इस कार्यका औचित्य बतलाते हुए वे कहते हैं कि संसारमें वे ही जीते हैं, उन्हींका जीवन सार्थक है, जो पराये बिहडित (बिगड़े हुए या विशंखल हुए ) काव्य, कुल और धनका उद्धार करते हैं।
पिछली दो सन्धियोंकी रचना और भाषा परसे ऐसा मालूम होता है कि उनमें जसंकित्तिका कुछ अधिक हाथ है । जसकित्ति इस ग्रन्थके कर्तासे ६-७ सौ वर्ष बादके लेखक हैं, उनकी भाषा इस ग्रन्थकी भाषाके मुकाबिलेमें अवश्य पहिचानी जा सकती है और हमारा विश्वास है कि अपभ्रंश भाषाके विशेषज्ञ परिश्रम करके इस बातका पता लगा सकते हैं कि इस ग्रन्थकी पिछली सन्धियोंमें जसकित्तिकी रचना कितनी है । हमें यह भी आशा है कि हरिवंशकी शायद ऐसी प्रति भी मिल जाय, जो स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभुको ही सम्पूर्ण रचना हो और उसमें जसकित्तिके लगाये हुए पेबन्द न हो। __ एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जसकित्तिका खुदका भी बनाया हुआ एक हरिवंशपुराण है और वह अपभ्रंशभाषाका ही है। इसलिए उनके लिए यह कार्य अत्यन्त सुगम था और क्या आश्चर्य जो उन उन अंशोंके स्थानपर जो