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जैनसाहित्य और इतिहास
त्रिभुवन स्वयंभुके हरिवंशपुराणसे नष्ट हो गये थे अपने उक्त हरिवंशके ही अंश काट-छाँटकर जड़ दिये हों । इसका निर्णय जैसकित्तिका ग्रन्थ सामने रखने से हो सकता है ।
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३ - पंचमीचरिउ
दुर्भाग्य से अभी तक इस ग्रन्थकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है; परन्तु पउमचरिय में लिखा है कि यदि स्वयंभुदेव के पुत्र त्रिभुवन न होते तो उनके पद्धड़ियाबद्ध पंचमीचरितको कौन सँवारता ! इससे मालूम होता है कि स्वयंभुदेवका पंचमीचरित नामका ग्रन्थ भी अवश्य था और उसे भी उनके पुत्रने शायद पूर्वोक्त दो ग्रन्थों के ही समान सँवारा था - बढ़ाया था ।
स्वयंभुके तीनों ग्रन्थ सम्पूर्ण थे
जैसा कि पहले कहा चुका है, स्वयंभुदेवने अपने तीनों ग्रन्थ अपनी समझ और रुचि अनुसार सम्पूर्ण ही रचे थे, उन्हें अधूरा नहीं छोड़ा था । पीछे
१ मुनि जसकित्ति या यश: कीर्ति काष्ठासंघ- माथुरान्वय पुष्करगणके भट्टारक थे और गोपाचल या ग्वालियरकी गद्दीपर आसीन थे । उनके गुरुका नाम गुणकीर्ति था । उनके दो अपभ्रंश-ग्रन्थ मिलते हैं एक हरिवंसपुराणु और दूसरा चंदप्पहचरिउ ! पहला ग्रन्थ जैनसिद्धान्तभवन आरामें है । भास्कर ( भाग ८, किरण १ ) में उसके जो बहुत ही अशुद्ध अंश उद्धृत किये गये हैं उनसे मालूम होता है कि दिवढा साहुके लिए उसकी रचना की गई थी । -" इय हरिवंसपुराणे कुरुवं साहिट्टिए विवुह चित्ताणुरंजणे सिरिगुणकित्तिसीसमुणिजस कित्तिविरइए साहु- दिवढानामंकिए... तेरहमो सग्गो सम्मत्तो। " और पिछला ग्रन्थ फर्रुखनगरके जैनमन्दिरके भंडार में है । उसके अन्तमें लिखा है -" इय सिरिचंद पहचरिए महाकइजसकित्तिविरइए महाभव्व सिद्धपालसवणभूसणे सिरिचंदप्पहसामिणिव्वाणगमणो णाम एयरइमो संधी सम्मत्तो । " यह प्रति श्रावण वदी १, शनि, संवत् १५६८ की लिखी हुई है । जसकित्ति तोमरवंशी राजा कीर्तिसिंह के समय में विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि के प्रारम्भमें हुए हैं। जैनसिद्धान्त भवन आरामें ज्ञानार्णवकी एक प्रति है जो संवत् १५२१ आषाढ़ सुदी -६ सोमवारको गोपाचलदुर्ग में तोमरवंशी राजा कीर्तिसिंह के राज्य में लिखी गई थी । इसमें गुणकीर्ति और यशः कीर्तिके बाद उनके शिष्य मलयकीर्ति और प्रशिष्य गुणभद्र भट्टारकक भी नाम हैं ।
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