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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
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सुद्धसहाव ( शुद्धस्वभाव ), ललि असहाव ( ललितस्वभाव ), पंछमणाह, माउरदेव ( मारुतदेव ), कोहंत, णागह, सुद्धसील ( शुद्धशील ), हरआस ( हरदास ), हरअत्त ( हरदत्त ), धगदत्त, गुणहर ( गुणधर ), णि उण (निपुण , सुद्धराअ (शुद्धराज , उन्भट (उद्भट), चंदण, दुग्गसीह (दुर्गसिंह), कालिआस ( कालिदास ), वेरणाअ, जीउदेअ (जीवदेव ), जणमणाणंद, सीलणिहि (शीलनिधि ), हाल ( सातवाहन ), विमलएव ( विमलदेव ), कुमारमोम, मूलदेव, कुमारअत्त ( कुमारदत्त ), तिलोअण (त्रिलोचन ), अंगवइ (अंगपति), रज उत्त (राजपुत्र), वेआल ( वेताल ), जोहअ, अजरामर, लोणुअ, कलाणुराअ ( कलानुराग ), दुग्गसत्ति (दुर्गशक्ति), अण्ण, अब्भुअ ( अद्भुत ), इसहल, रविवप्प ( रविवप्र), छइल्ल, विअड्ढ, सुहडरा ( सुभटराज ), चंदराअ चन्द्रराग), ललअ ।
अपभ्रंश कवि-च उमुह ( चतुर्मुख ) धुत, धनदेव, छइल, अजदेव ( आर्यदव ), गोइंद (गोविन्द ), सुद्धसील (शुद्धशील ), जिणआस ( जिनदास ), विअड्ढ ।
इन कवियों में जैन कौन कौन हैं और अजैन कौन, यह हम नहीं जानते । हमारे लिए हाल कालिदास आदि को छोड़कर प्रायः सभी अपरिचित हैं । फिर भी इनमें जैन कवि काफी होंगे बल्कि अपभ्रंश कवि तो अधिकांश जैन ही होगे। क्योंकि अबतक अपभ्रंश साहि-य अधिकांशमें उन्हीं का लिखा हुआ मिला है।
वेताले कविके पद्यके प्रारंभिक अंशका जो उदाहरण दिया है, उससे वह जैन जान पड़ता है । चौथे अध्यापके १७, १९, २१, २४, २६ नं० के जो छह पद्य हैं, वे गोइन्दके हैं और हरिवंशकी कथाके प्रसंगके हैं। उनसे मालूम होता है कि गोइन्द भी जैन है और उसका भी एक हरिवंसपुराण है। माउरदेव, जिनदास और चउमुहु तो जैन हैं ही। चतुर्मुम्बके जो ४-२, ६-७१, ८३, ८६, ११२ नं. के पद्य हैं वे राम कथासम्बन्धी हैं और उनके पउमचरिउसे लिये गये हैं। चतुर्मुग्वके हरिवस, पउमचरिउ और पंचमीचरिउ नामक तीन ग्रन्थों के होने का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है ।
स्वयंभु-व्याकरण हमारा अनुमान है कि स्वयंभुदेवने स्वयंभु-छन्दके समान अपभ्रंश भाषाका १ कामवाणो वेआलस्स
'णिचं णमो वीअराआ' एवमाइ त्ति ॥ १-१७७ २८