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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
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७ ' करकंडुचरिउ ' के कर्ता कनकामर ( कनकदेव ) ने स्वयंभु और पुष्प - दन्त दो अपभ्रंश कवियों का उल्लेख किया है, परन्तु स्वयंभुको केवल ' स्वयंभु लिखा है, ' चतुर्मुख स्वयंभु ' नहीं ' ।
८ पउमचरिउमें ‘ पंचमिचरिअ' के विषय में लिखा है
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चउमुहसयंभुवाण वाणियत्थं अचक्खमाणेण । तिहुअणसयंभु रइयं पंचमिचरिअं महच्छरिअं ॥
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इसके ' चउमुहसयंभुवाण' ( चतुर्मुखस्वयंभुदेवानाम् ) पदसे चतुर्मुख और स्वयंभु जुदा जुदा दो कवि ही प्रकट होते हैं । क्यों कि यह पद एकवचनान्त नहीं, बहुवचनान्त है । ( द्विवचन अपभ्रंश में होता नहीं । )
इन सब प्रमाणोंके होते हुए चतुर्मुख और स्वयंभुको एक नहीं माना जा सकता । प्रो० एच० डी० वेलणकर और प्रो० हीरालाल जैनने भी चतुर्मुखको स्वयंभुसे पृथक् और उनका पूर्ववर्त्ती माना है । स्वयंभुदेव अपभ्रंशभाषा के आचार्य भी थे । आगे बतलाया गया है कि अपभ्रंशका छन्दशास्त्र और व्याकरणशास्त्र भी उन्होंने निर्माण किया था । छन्दचूड़ामणि, विजयशेषित या जयपरिशेष और कविराज-धवल उनके विरुद थे |
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उनके पिताका नाम मारुतदेव और माताका पद्मिनी था । मारुतदेव भी कवि थे । स्वयंभु-छन्दमें 'तहा य माउरदेवस्स' कहकर उनका एक दोहा उदाहरणस्वरूप
१ जयएव सयंभु विसालचित्तु, वाएसरिघरु सिरिपुप्फयंतु ।
२ हरिवंशपुराण और पद्मपुराणके समान ' पंचमी - कहा ' भी जैनों की बहुत ही लोकप्रिय कथा है । संस्कृत और अपभ्रंशके प्रायः सभी प्रसिद्ध कवियोंने इन तीनों कथाओंको अपने अपने ढंग से लिखा है । महापुराण ( इसमें पद्मचरित और हरिवंश दोनों हैं) के अतिरिक्त पुष्पदन्तकी पंचमी - कथा ( णायकुमारचरिउ ) है ही, मलिषेणके भी महापुराण और नागकुमारचरित हैं । इसी तरह चतुर्मुख और स्वयंभुके भी उक्त तीनों कथानकोंपर ग्रन्थ होने चाहिए | स्वयंभुके दो तो उपलब्ध ही हैं, और पंचमीचरितका उक्त पथमें उल्लेख किया गया है । त्रिभुवन स्वयंभुने अपने पिताके तीनों ग्रन्थोंको सँभाला है । अर्थात् उनमें कुछ अंश अपनी तरफसे जोड़कर पूरा किया है । धनपालकी ' पंचमी कहा ' प्रकाशित हो चुकी है ।
३ स्वयंभु छन्दका इंट्रोडक्शन पेज ७१ - ७४, रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बईका जर्नल, जिल्द २, १९३५ । ४ नागपुर यूनीवर्सिटीका जर्नल, दिसम्बर, १९३५ ॥