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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
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प्रारंभमें लिखा है कि यह राम-कथा वर्द्धमान् भगवानके मुख-कुहरसे विनिर्गत होकर इन्द्रभूति गणधर और सुधर्मास्वामी आदि के द्वारा चली आई है और रविषेणाचार्यके प्रसादसे मुझे प्राप्त हुई है।' तब क्या रविषेण भी यापनीय संघके थे ?
स्वयंभुदेव पहले धनंजयके आश्रित रहे जब कि उन्होंने पउमचरिउकी रचना की और पीछे धवलइयाके जब कि रिहणेमिचरिउ बनाया। इसलिए उन्होंने पहले ग्रन्थमें धनंजयका और दूसरेमें धवलइयाका प्रत्येक सन्धिके अन्तमें उल्लेख किया है ।
त्रिभुवन स्वयंभु स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवन स्वयंभु था। ये अपने पिताके सुयोग्य पुत्र थे और उन्हीं के समान महाकवि भी । कविराज-चक्रवर्ती उनका विरुद था। लिखा है कि उस त्रिभुवन स्वयंभुके गुणोंका वर्णन कौन कर सकता है जिसने बाल्यावस्थामें ही अपने पिताके काव्य-भारको उठा लिया । यदि वह न होता तो स्वयंभुदेवके काव्योंका, कुलका और कवित्वका समुद्धार कौन करतो ? और सब लोग तो अपने पिताके धनका उत्तराधिकार ग्रहण करते हैं; परन्तु त्रिभुवन स्वयंभुने अपने पिताके सुकवित्वका उत्तराधिकार लिया । ' उसे छोड़कर स्वयंभुके समस्त शिष्योंमें ऐसा कौन था जो उनके काव्य-समुद्रको पार करतो ? व्याकरणरूप हैं मजबूत कन्धे जिसके, आगमोंक अंगोंकी उपमावाले हैं विकट पद जिसके, ऐसे त्रिभुवन स्वयंभुरूप धवल ( वृषभ ) ने जिन-तीर्थमें काव्यका भार वहन किया। इससे मालूम होता है कि त्रिभुवन भी वैयाकरण और आगमादिके ज्ञाता थे।
जिस तरह स्वयंभुदेव धनंजय और धवलइयाके आश्रित थे उसी तरह त्रिभुवन बंदइयाके । ऐसा मालूम होता है कि ये तीनों ही आश्रयदाता किसी एक ही राजमान्य या धनी कुलके थे-धनंजयके उत्तराधिकारी ( संभवतः पुत्र) धवलइया और धवलइयाके उत्तराधिकारी बंदइया । एकके देहान्त होनेपर दूसरेके और दूसरेके बाद तीसरेके आश्रयमें ये आये होंगे ।
बन्दइयाके प्रथम पुत्र गोविन्दका भी त्रिभुवन स्वयंभुने उल्लेख किया है जिसके वात्सल्य भावसे पउमचरियके शेषके सात सर्ग रचे गये।
बन्दइयाके साथ पउमचरिउके अन्तमें त्रिभुवन स्वयंभुने नाग और श्रीपाल १ देखो संधि १, कडवक २ । २-३-४-५ पउमचरिउके अन्तिम अंशके पद्य ३, ७, ९, १०॥ ६ अन्तिम अंशका चौथा पद्य । ७ अन्तिम अंशका १५ वाँ पद्य ।