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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
जैन विद्वानोंने लोकरुचि और लोकसाहित्यकी कभी उपेक्षा नहीं की । जनसाधारणके निकटतक पहुँचने और उनमें अपने विचारोंका प्रचार करने के लिए वे लोक-भाषाओंका आश्रय लेनेसे भी कभी नहीं चूके । यही कारण है जो उन्होंने सभी प्रान्तों की भाषाओं को अपनी रचनाओंसे समृद्ध किया है । अपभ्रंश भाषा किसी समय द्रविड़ प्रान्तों और कर्नाटकको छोड़कर प्रायः सार भारतमें थोड़ बहुत हेर-फेर के साथ समझी जाती थी । अतएव इस भाषा में भी जैन कवि विशालसाहित्य निर्माण कर गये हैं ।
धक्कड़कुलके पं० हरिषेणने अपनी 'धम्मपरिक्खा' में अपभ्रंश भाषाके तीन महाकवियोंकी प्रशंसा की है, उनमें सबसे पहले चउमुहु या चतुर्मुख हैं जिनकी अभी तक कोई रचना उपलब्ध नहीं हुई है, दूसरे हैं स्वयंभु देव जिनकी चर्चा इस लेख में की जायगी और तीसरे हैं पुष्पदन्त जिनके प्रायः सभी ग्रन्थ प्रकाशमें आ गये हैं और जिनसे हम परिचित भी हो चुके हैं ।
पुष्पदन्तने चतुर्मुख और स्वयंभु दोनोंका स्मरण किया है, और स्वयंभुने चतुर्मुखकी स्तुति की है, अर्थात् चतुर्मुख स्वयंभुसे भी पहलेक कवि हैं ।
चतुर्मुख और स्वयंभु
प्रो० मधुसूदन मोदीने चतुर्मुख और स्वयंभुको न जाने कैसे एक ही कवि समझ लिया है' । वास्तव में ये दोनों जुदा जुदा कवि हैं । इसमें सन्देहकी जरा भी गुंजाइश नहीं है । क्यों कि
१ स्वयं स्वयंभूने अपने पउमचरिउ, रिहणेमिचरिउ ( हरिवंसपुराणु ) और स्वयंभु-छन्द इन तीनों ग्रन्थों में कहीं भी ' चतुर्मुख स्वयंभु' नामसे अपना उल्लेख नहीं किया है । सर्वत्र ही स्वयंभु लिखा है और स्वयंभुक पुत्र त्रिभुवनंन भी अपने
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१ देखो, भारतीय विद्या ( अंक २ और ३, मार्च और अगस्त १९४० ) में प्रो० मोदीका • अपभ्रंश कविओ : चतुर्मुख स्वयंभु अने त्रिभुक्न स्वयंभु ' शीर्षक गुजराती लेख ।