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वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
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भी पूज्य हैं ।
इसस दो बातें ध्वनित होती हैं-एक तो यह कि उस समय मुनिजन जिनरूप धारण करते थे अर्थात् नग्न रहते थे, यद्यपि उनका चरित्र शिथिल था, वे पूर्वमुनियोंकी छाया-भर थे और दूसरे यह कि उनकी विरलता थी।
वस्त्र धारण करनेकी ओर प्रवृत्ति दिगम्बर चैत्यवासियोंके अन्तिम विकसितरूप भट्टारकोंमें यह परम्परा अब तक रही है कि वे और समय तो वस्त्र पहिने रहत हैं परन्तु आहारके समय उतारकर अलग रख देते हैं । यह इस बातका सुबूत है कि पहले वे बिल्कुल नग्न रहते थे. और निरन्तर वस्त्र धारण किये रहनेकी प्रवृत्ति उनमें पीछे शुरू हुई है।
विक्रमकी सोलहवीं सदीके भट्टारक श्रुतसागरसूरिने लिखा है कि कलिकालमें म्लेच्छादि ( मुसलमान वगैरह ) यतियोंको नम देखकर उपद्रव करते हैं, इस कारण मण्डपदुर्ग (मांडू ) में श्रीवसन्तकीर्ति स्वामीने उपदेश दिया कि मुनियोंको चर्या
आदिके समय चटाई, टाट आदिसे शरीरको ढक लेना चाहिए और फिर चर्या के बाद उस चटाई आदिको छोड़ देना चाहिए । यह अपवाद वेष है ।
मूल संघकी गुर्वावलीमें चित्तौरकी गद्दीके भट्टारकोंके जो नाम दिये हैं उनमें वसन्तकीर्तिका नाम आता है जो वि० संवत् १२६४ के लगभग हुए हैं । उस समय उस तरफ मुसलमानोंका आंतक भी बढ़ रहा था । शायद इन्हींको श्रुतसागरने इस अपवाद वेषका प्रवर्तक बतलाया है । अर्थात् विक्रमकी तेरहवीं सदोके अन्तमें दिगम्बर साधु बाहर निकलते समय लज्जा-निवारणके लिए चटाई आदिका उपयोग करने लगे थे। १-यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् ।
तथा पूर्वमुनिच्छाया पुज्याः सम्प्रतिसंयताः ॥ २ कोऽपवादवेष: ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वा उपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति । तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीतिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुंचति इत्युपदेशः कृतः संयमिनां, इत्यपवाद वेषः । -पटप्राभृत-टीका पृ० २१
३ देखा जैनहितैषी भाग ६, अंक ७-८
४ परमात्मप्रकाशकी संस्कृत टीकामें ब्रह्म देवजी भी शक्तिके अभावमें साधुको तृणमय आवरणादि रखने परन्तु उसपर ममत्व न रखनेका विधान करते हैं -“ विशिष्टसंहननादिश क्त्यभावे सति यद्यपि तप:पर्यायसहकारिभूतमन्न-पान-संयमशौचशानीपकरणतणमयप्रावरणादिक किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोति ।-गाथा २१६ की टीका पृ० २३२ ।