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जैनसाहित्य और इतिहास
आचार्य जिनसेन (पुन्नाटसंघीय) ने भी अपने हरिवंशपुराण (वि०सं० ८४०) में, उद्योतनसूरिके पाँच वर्ष बाद ही, रविषेणके पद्मचरितकी प्रशंसा की है।
प्राकृतका पल्लवित छायानुवाद दोनों ग्रन्थकर्ताओंने अपने अपने ग्रन्थमें रचना-काल दिया है, उससे यह स्पष्ट है कि पउमचरिय पद्मपुराणसे पुराना है और दोनों ग्रन्थोंका अच्छी तरह मिलान करनेसे मालूम होता है कि पद्मपुराणके कर्त्ताके सामने पउमचरिय अवश्य मौजूद था । पद्मपुराण एक तरहसे प्राकृत पउमचरियका ही पल्लवित किया हुआ संस्कृत छायानुवाद है । पउमचरिय अनुष्टुप् श्लोकोंके प्रमाणसे दस हजार है और पद्मचरित अठारह हजार । अर्थात् प्राकृतसे संस्कृत लगभग पौने दो गुना है । प्राकृत ग्रन्थकी रचना आर्या छन्दमें की गई है और संस्कृतकी अनुष्टुप् छन्दमें, इसलिए पद्मपुराणमें पद्य तो शायद दो गुनेसे भी अधिक होंगे । छायानुवाद कहनेके कुछ कारण - /१ दोनोंका कथानक बिल्कुल एक है और नाम भी एक है। /२ पर्वो या उद्देश्यों तकके नाम दोनोंके प्रायः एकसे हैं । /३ हरएक पर्व या उद्देश्यके अन्तमें दोनोंने छन्द बदल दिये हैं । ( ४ पउमचरियके उद्देश्यके अन्तिम पद्यमें 'विमल' और पद्मचरितके अन्तिम पद्यमें 'रवि' शब्द अवश्य आता है । अर्थात् एक विमलाङ्क है और दूसरा ख्यङ्क ।
१५ पद्मचरितमें जगह जगह प्राकृत आर्याओंका शब्दशः संस्कृत अनुवाद दिखलाई देता है । ऐसे कुछ पद्य इस लेखके परिशिष्टमें नमूनेके तौरपर दे दिये गये हैं और उसी तरहके सैकड़ों और भी दिये जा सकते हैं।
पल्लवित कहनेका कारण यह है कि मूलमें जहाँ स्त्री-रूपवर्णन, नगर-उद्यानवर्णन आदि प्रसंग दो चार पद्योंमें ही कह दिये गये हैं वहाँ अनुवादमें ड्योढ़े दूने पद्य लिखे गये हैं । इसके भी कुछ नमूने अन्तमें दे दिये गये हैं।
पउमचरियके कर्त्ताने चौथे उद्देश्यमें ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति बतलाते हुए कहा है कि जब भरत चक्रवर्तीको मालूम हुआ कि वीर भगवानके अवसानके बाद ये लोग कुतीर्थी पाषण्डी हो जायेंगे और झूठे शास्त्र बनाकर यज्ञोंमें पशुओंकी हिंसा करेंगे, तब उन्होंने उन्हें शीघ्र ही नगरसे निकाल देनेकी आज्ञा दे दी, और इस
१-कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्तिता ।
मूर्तिः काव्यमयी लोके वेरिव खेः प्रिया ॥ ३४ ॥