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महाकवि पुष्पदन्त
मेलपाटी पहुँचे थे' । उनका स्वभाव स्वाभिमानी और कुछ उग्र तो था ही, अतएव कोई आश्चर्य नहीं जो राजाकी जरा-सी भी टेढ़ी भोंहको वे न सह सके हों और इसीलिए नगर में चलने के आग्रह करनेपर उन दो पुरुषोंके सामने ही राजाओंपर बरस पड़े हों । अपने उग्र स्वभावके कारण ही वे इतने चिढ़ गये और उन्हें इतनी वितृष्णा हो गई कि सर्वत्र दुर्जन ही दुर्जन दिखाई देने लगे, और सारा संसार निष्फल, नीरस, शुष्क प्रतीत होने लगों ।
जान पड़ता है महामात्य भरत मनुष्य-स्वभाव के बड़े पारखी थे । उन्होंने कवि - वरकी प्रकृतिको समझ लिया और अपने सद्व्यवहार, समादर और विनयशीलतासे सन्तुष्ट करके उनसे वह महान् कार्य करा लिया जो दूसरा शायद ही
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करा सकता ।
राजाके द्वारा अवहेलित और उपेक्षित होनेके कारण दूसरे लोगोंने भी शायद उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया होगा, इसलिए राजाओंके साथ साथ औरोंसे भी वे प्रसन्न नहीं दिखलाई देते, उनको भी बुरा-भला कहते हैं; परन्तु भरत और नन्नकी लगातार प्रशंसा करते हुए भी वे नहीं थकते । उत्तरपुराणके अन्तमें उन्होंने अपना परिचय इस रूपमें दिया है, " सिद्धिविलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धा देवीके शरीर से संभूत, निर्धनों और धनियों को एक दृष्टिसे देखनेवाले, सारे जीवोंके अकारण मित्र, शब्दसलिलसे बढ़ा हुआ है काव्य-स्रोत जिनका, केशव के पुत्र, काश्यपगोत्री, सरस्वतीविलासी, सूने पड़े हुए घरों और देवकुलिकाओं में रहनेवाले, कलिके प्रबल पाप-पटलों से रहित, बेघरबार, पुत्रकलत्रहीन, नदियों वापिकाओं और सरोवरों में स्नान करनेवाले, पुराने वस्त्र और बल्कल पहिननेवाले, धूलधूसरित अंग, दुर्जनों के संगसे दूर रहनेवाले, जमीनपर सोनेवाले और अपने ही हाथोंको ओढ़नेवाले, पंडित-पंडितमरणकी प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यखेट नगरमें रहनेवाले, मनमें अरहंतदेवका ध्यान करनेवाले, भरतमंत्रीद्वारा सम्मानित, अपने काव्यप्रबंध से लोगोंको पुलकित करनेवाले और पापरूप कीचड़को जिन्होंने धो डाला है, ऐसे अभिमानमेरु पुष्पदन्तने, यह काव्य जिन - पदकमलोंमें हाथ जोड़े हुए भक्तिपूर्वक क्रोधनसंव
१ देखो पिछले उद्धरण |
२ जो जो दीसइ सो सो दुज्जणु, णिम्फलु णीरसु जं सुक्कउवणु ।