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साम्प्रदायिक द्वेषका एक उदाहरण
है । उन्होंने निश्चयसे अपने स्वाध्याय के लिए इसे लिखा या लिखवाया होगा । लिखा भी बहुत शुद्ध है । पुस्तक बहुत जीर्ण हो गई है, जो पीछे जगह जगह बड़ी सावधानी से मरम्मत करके ठीक की गई है ।
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इस गुटकेके लिखने लिखानेवाले कोई मूल संघके अनुयायी होंगे परन्तु पीछेसे वि० संवत् १६३६ में यह अहमदाबाद के श्रीभूषण भट्टारकके हाथमें पहुँच गया जो काष्ठासंघ के पट्टधर थे और जिन्होंने अपनेको पद्मापाकविचक्रवर्ती तथा घट्दर्शनतर्कचक्रवर्ती लिखा है । जान पड़ता है कि आपको मूल संघ से अत्यन्त द्वेष था, ऐसा द्वेष कि जिसकी एक साधुमें हम कल्पना भी नहीं कर सकते । इस लिए आपने उक्त गुटके में जहाँ जहाँ उक्त मूलसंघी सजनका नामादि लिखा था वहाँ वहाँ हड़ताल फेरकर उसपर अपना नाम लिख दिया है । इसके सिवाय जहाँ थोड़ी-सी भी खाली जगह पाई है, वहाँ " श्रीकाष्ठासंघे नदीतटगच्छे भट्टारकश्रीरामसेनान्वान्वये श्रीश्रीभूषणेन लिखापितं " लिख दिया है। गुटके में एक प्रतिक्रमण पाठ भी है; परन्तु भट्टारकजीकी दृष्टिमें वह शायद मूलसंधियोंके ही उपयोगका था, काष्ठासंघी उससे अपना आत्म-कल्याण नहीं कर सकते थे, इसलिए उसके नीचे आपने लिख दिया है - " मयूरसंधिनः प्रतिक्रमणं विनोदाय च विलोकनाय लिखापितं न तु पठनाय । ” अर्थात् मूलसंघियों का प्रतिक्रमण विनोदके लिए तथा देखने के लिए लिखवाया है, पढ़ने के लिए नहीं !
षट्भाषाकविचक्रवर्ती महाशय इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुए । उन्होंने उक्त गुटके में लिखे हुए देवसेनाचार्य के सुप्रसिद्ध 'दर्शनसार की बड़ी ही दुर्दशा की है । पाठक जानते हैं कि इसमें बौद्ध, आजीवक, श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविडसंघ, काष्ठासंघ आदिकी उत्पत्ति लिखी है । उसमें से काष्ठासंघकी उत्पत्तिका कथन चूँकि आपको पसन्द न था इसलिए उसपर भी आपने अपनी कलम-करामात दिखलाई है और उसमें जहाँ ' काष्ठासंघ ' लिखा था वहाँ ' मूलसंघ, ' जहाँ ' कुमारसेन लिखा था वहाँ ' पद्मनन्दि, ' जहाँ 'गोपुच्छक' लिखा था, वहाँ ' मयूरसंघ ' या मूलसंघ' और जहाँ ' नन्दीतट ' लिखा था वहाँ ' गिरनार ' हड़ताल फेर फेर कर लिख दिया है । यह परिवर्तन करते समय उन्होंने इस बातका खयाल ही नहीं किया कि हम यह क्या कर रहे हैं और इससे कितना गोलमाल हो जायगा । और नीचे लिखी गाथाके अर्थपर तो शायद वे विचार ही नहीं कर सके, उन्होंने इसे ज्योंका त्यों रहने दिया जिसमें काष्ठासंघकी मानताओं को बतलाया है और जो
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