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जैनसाहित्य और इतिहस
इसी तरह दिगम्बर सम्प्रदायके भट्टारक ' मठवासी' शाखाके और ननमुनि जो विरलप्राय हैं वे 'वनवासी शाखाके' अवशेष हैं। भट्टारकोंके लिए ' जती' शब्द दिगम्बर सम्प्रदायमें भी प्रचलित रहा है। __भट्टारकों और जतियोंका आचरण लगभग एक सा है। यद्यपि ये दोनों ही निर्ग्रन्थता और अपरिग्रहताका दावा करते हैं परन्तु वास्तवमें है ये परिग्रही और चैनसे जिन्दगी बसर करनेवाले ।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही शाखाओंके साधु निर्ग्रन्थ कहलाते हैं और निर्ग्रन्थका अर्थ है सब प्रकारके परिग्रहोसे रहित । यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें साधुओंको लजा निवारणके लिए बहुत ही सादा, वस्त्र रखनेकी छुट्टी दी गई है परन्तु जिन शाके साथ दी गई है वह न देनेके ही बराबर है। वास्तवमें अशक्ति या लाचारामें ही वस्त्रका उपयोग करनेकी आज्ञा है । ऐसा मालूम होता है कि विक्रमकी सातवीं आठवीं शताब्दि तक तो श्वेताम्बर साधु भी कारण पड़नेपर ही वस्त्र धारण करते थे और सो भी कटि-वस्त्र । यदि कटि-वस्त्र भी निष्कारण धारण किया जाता था तो धारण करनेवाले साधुको कुसा माना जाता था। आचार्य हरिभद्रने अपने संबोध प्रकरणमें अपने समयके चैत्यवासी कुगुरुओंका वर्णन करते हुए लिखा है कि वे केश-लोच नहीं करते, प्रतिमा वहन करते शरमाते हैं, शरीरपरका मैल उतारते हैं, पादुकायें पहिन कर फिरते हैं और विना कारण कटिवस्त्र बाँधते हैं । उन्होंने उन्हें क्लीब कहा है। ___ कुछ परिचित श्वेताम्बर साधुओंसे मालूम हुआ कि अभी कुछ ही समय पहलेके श्वेताम्बर साधु अपने उपाश्रयों में जब बैठे होते थे, तब शरीरके अधोभागपर एक वस्त्र-खंड डाले रहते थे, उसे बाँधते तक न थे। बाहर निकलते समय ही वे कटि-वस्त्र धारण करते थे।
१ इधर १५-२० वर्षसे दिगम्बर सम्प्रदायमें कुछ नग्न मुनि भी नजर आने लगे हैं परन्तु इसके पहले सैकड़ों वर्षोसे इस सम्प्रदायमें मुनि-परम्परा विच्छिन्न रही है ।
२ देखो आचारांगसूत्र प्र० श्रु०, अध्ययन ६, उद्देश्य ३ और द्वि० श्रु० अध्ययन १४ उ० १,२ । ३ कीवो न कुणइ लोयं लजइ पडिमाइ जल्लमुवणेई । सोवाहणो य हिंडइ बंधइ कटिपट्टयमकजे ॥ ३४ ॥
-संबोध प्रकरण पृ० १४