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वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
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जो लोग इन भ्रष्ट-चरित्रोंको भी मुनि मानते थे, उनको लक्ष्य करके श्रीहरिभद्रसूरि कहते हैं, "कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह भी तीर्थंकरोंका वेष है, इसे नमस्कार करना चाहिए । अहो धिक्कार हो इन्हें । मैं अपने सिरके शूलकी पुकार किसके आगे जाकर करूँ ?”
यह गुर्वधिकार बहुत विस्तृत है । पाठकोंसे निवेदन है कि वे यहाँ इतनेसे ही सन्तोष करें और यदि सुभीता हो तो उसे पूरा पढ़ डालें ।
जिनवल्लभसूरिकृत संघपट्टककी भूमिका श्वेताम्बर चैत्यवासका इतिहास इस प्रकार दिया है
" वी० नि० ८५० के लगभग कुछ मुनियोंने उग्र विहार छोड़कर मन्दिरों में रहनेका प्रारंभ कर दिया । धीरे धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और समयान्तरमें ये बहुत प्रबल हो गये। इन्होंने 'निगम' नामके कुछ ग्रन्थ रचे और उन्हें 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंगका एक अंश बतलाया। उनमें यह प्रतिपादन किया गया कि वर्तमान कालके मुनियोंको चैत्यों में रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादिके लिए यथायोग्य आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके रखना चाहिए । साथ ही ये वनवासियों की निन्दा करने लगे और अपना बल बढ़ाने लगे। __“ वि० सं० ८०२ में अणहिलपुर पट्टणके राजा वनराज चावड़ासे उनके गुरु शीलगुणसूरिने-जो चैत्यवासी थे-यह आज्ञा जारी करा दी कि इस नगरमें चैत्यवासी साधुओंको छोड़कर दूसरे वनवासी साधु न आ सकेंगे।
"इस अनुचित आज्ञाको रद करानेके लिए वि० सं० १०५४ में अर्थात २८२ वर्षके बाद जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि नामके दो विधिमार्गी आचार्योंने राजा दुर्लभदेवकी सभामें चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया और तब कहीं पाटणमें विधिमार्गियोंका प्रवेश हो सका।
"मारवाड़में भी चैत्यवासियोंका बहुत प्राबल्य था। उसके विरुद्ध सबसे अधिक प्रयत्न पूर्वोक्त जिनेश्वर सूरिके शिष्य जिनवल्लभने किया। अपने संघपट्टकमें उन्होंने चैत्यवासियोंके शिथिलाचारका और सूत्र-विरुद्ध प्रवृत्तिका अच्छा खाका खींचा है।"
१-बाला वयंति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि ।
णमणिजो धिद्धी अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमो ॥ ७६ ॥