________________
वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
वस्त्र-पात्रके सिवाय दिगम्बर - श्वेताम्बर साधुओंके आचार में और कोई विशेष अन्तर नहीं है । दोनोंके आचार-ग्रन्थों में कहा है कि मुनियोंको बस्ती से बाहर उद्यानों- -या शून्य गृहों में रहना चाहिए, अनुद्दिष्ट भोजन करना चाहिए । धर्मोपकरणोंके अतिरिक्त अन्य सब प्रकारके परिग्रहों से दूर रहना चाहिए, जमीनपर सोना चाहिए, पैदल घूमना चाहिए और शान्ति से ध्यानाध्ययनमें अपना समय बिताना चाहिए ।
३५१
यह कहना तो कठिन है कि किसी समय सबके सब साधु आगमोपदिष्ट आचारोंका पूर्ण रूपसे पालन करते होंगे; फिर भी शुरू शुरू में दोनों ही शाखाओंके साधुओंमें आगमोक्त आचारोंके पालनका अधिक से अधिक आग्रह था । परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया, साधु-संख्या बढ़ती गई और भिन्न भिन्न आचार-विचारखाले विभिन्न देशों में फैलती गई, धनियों और राजाओं द्वारा पूजा प्रतिष्ठा पाती गई त्यों त्यों उसमें शिथिला आती गई और दोनों ही सम्प्रदायों में शिथिलाचारी साधुओं की संख्या बढ़ती गई ।
पहले हमारा खयाल था कि बहुत पिछले समय में शिथिलाचारियोंका उदय हुआ होगा परन्तु अब अधिक विचार करनेसे ऐसा मालूम होता है बहुत प्राचीन कालमें ही इनकी जड़ जम गई थी ।
जैनागम - साहित्य के विशिष्ट अभ्यासी पं० बेचरदासजीने लिखा है कि “ दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर और उनके उत्तराधिकारी जम्बूस्वामी तक ही जैन मुनियोंका यथोपदिष्ट आचार रहा, उसके बाद ही जान पड़ता है कि बुद्ध देवके अतिशय लोकप्रिय मध्यम मार्गका उनपर प्रभाव पड़ने लगा । शुरू शुरू में तो शायद जैनधर्मके प्रसारकी भावना से ही वे बौद्ध साधुओं जैसी आचारकी छूट लेते होंगे; परन्तु पीछे उसका उन्हें अभ्यास हो गया । इस तरह एक सदभिप्रायसे भी उक्त शिथिलता बढ़ती गई जो आगे चलकर चैत्यवासमें परिणत हो गई ।
""
श्वेताम्बर चैत्यवासी
अब पहले श्वेताम्बर चैत्यवासके इतिहासको देखिए । श्वेताम्बर साहित्य में इसकी काफी सामग्री मिलती है ।
,
आचार्य धर्मसागर अपनी पट्टावली में लिखते हैं कि वीरसंवत् ८८२ में चैत्यवास शुरू हुआ - ' वीरात् ८८२ चैत्यस्थितिः | परन्तु मुनि कल्याणविजयजी आदि विद्वानोंका खयाल है कि इससे भी पहले इसकी जड़ जम गई थी और