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श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र
दिया जा चुका है उसी तरह प्रभाचंद्र के भी अनेक स्वतंत्र ग्रंथ और टीका-टिप्पण ग्रंथ हैं और उनमेंसे कई में उन्होंने धारा निवासी और जयसिंहदेव के राज्यका उल्लेख किया है जैसे कि आराधनाकथाकोश (गद्य) में लिखा है
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श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपंचपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलंकेन श्रीमत्प्रभाचंद्रपंडितेन आराधनासत्कथाप्रबंधः कृतः । उन्होंने कई ग्रंथ जयसिंहदेव से पहले भोजदेव के समय में भी बनाये हैं' और उनमें अपने लिए लगभग यही विशेषण दिये हैं ।
इन सब बातोंसे स्पष्ट हो गया है कि ये दोनों ग्रन्थकर्त्ता भिन्न भिन्न हैं और दोनों को एक समझना भ्रम है। ऐसा मालूम होता है कि जयपुर के लिपिकर्त्ताने पहले प्रभाचन्द्रके टिप्पणकी एक नकल की होगी और तब उसकी यह धारणा बन गई होगी कि टिप्पण के कर्त्ता प्रभाचन्द्र हैं और उसके बाद जब उससे श्रीचन्द्रके टिप्पणकी भी नकल कराई होगी तब उसने उसी धारणाके अनुसार 'श्रीचन्द्र' को गलत समझकर ' प्रभाचंद्राचार्यविरचितं ' लिख दिया होगा ।
यहाँ यह कह देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ये वही प्रभाचन्द्र हैं जिनके बनाये हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र नामके प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ हैं और जिन्होंने जैनेन्द्रव्याकरणपर शब्दाम्भोजभास्कर नामका भाष्य लिखा है । रत्नकरण्डटीका, क्रियाकलापटीका, समाधितंत्रटीका, आत्मानुशासनतिलक, द्रव्यसंग्रह पंजिका, प्रवचनसरोजभास्कर, सर्वार्थसिद्धिटिप्पण (तत्त्वार्थवृत्तिपद विवरण) आदि टीकायें और आराधनाकथाकोश ( गद्य ) भी उन्हींका है । इनके सिवाय अष्टपाहुड़-पंजिका, स्वयंभू स्तोत्र - पंजिका, देवागम- पंजिका, समयसार - टीका, पंचास्तिकाय टीका, मूलाचार- टीका, आराधना - टीका आदि टीका- ग्रन्थ भी जिनके नाम ग्रन्थ- सूचियों में मिलते हैं शायद उन्हींके हों ।
१ जैसे प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें — “ श्रीभोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिल मलकलंकेन श्रीमत्प्रभाचंद्रपंडितेन निखिल - प्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति ।
२ देखो न्यायकुमुदचन्द द्वि० खंडकी न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारालेखित भूमिका ।