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वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
पन्थोंकी उत्पत्ति और विकास संसारमें जितने धर्म या सम्प्रदाय हैं, उन सबमें उनके स्थापित होने के समयसे लेकर अब तक, अनेक पन्थ, शाखा, उपशाखास्वरूप भेद होते रहे हैं और नये नये होते जाते हैं । ऐसा एक भी धर्म नहीं है जिसमें एकाधिक भेद या पन्थ न हों।
ये भेद या पन्थ अनेक कारणोंसे होते हैं। उनमें बहुत बड़ा कारण देशकालकी परिस्थितियाँ हैं । प्रत्येक धर्मके उपासकोंमें दो प्रकारकी प्रकृतियाँ पाई जाती हैं । एक प्रकृति तो ऐसी होती है जो अपने धर्मके विचारों या आचारोंके विषयमें जरा भी टससे मस नहीं होना चाहती, उन्हींको जोरके साथ पकड़े रहती है और दूसरी प्रकृति देश और कालकी बदली हुई परिस्थितियों और आवश्यकताओंके अनुसार मूल आचार-विचारोंमें थोड़ा बहुत परिवर्तन कर लेनेको तैयार हो जाती है, विशेष करके ऐसे परिवर्तन जो सुगम और आरामदेह होते हैं। बस, इन्हीं दोनों प्रकृतियों की खींच-तान और रगड़-झगड़से एक नया सम्प्रदाय या पन्थ खड़ा हो जाता है और उसके झण्डेके नीचे दूसरी प्रकृतिके हजारों मनुष्य आकर उसे विस्तृत और समृद्ध कर देते हैं ।
पर आगे चलकर यह नया पन्थ भी अविभक्त नहीं रहने पाता। सौ दो सौ वर्षोंमें फिर नई परिस्थितियों और आवश्यकताओंके कारण उसमें भी और और भेद जन्म लेने लगते हैं । इस तरह बराबर नये नये सम्प्रदाय और पन्थ जन्म लेते रहते हैं और मूल धर्मको अनेक भागोंमें विभक्त करनेका श्रेय प्राप्त किया करते हैं। ___ इस भेद वृद्धि के साथ साथ धर्मके मूल सिद्धान्तोंका भी क्रम क्रमसे रूपान्तर होता रहता है। पहली और दूसरी, दोनों ही प्रकृतिके लोग, आपसकी खींचतानमें उनको अपने अपने पक्षके अनुसार बनानेमें लगे रहते हैं और इस कारण उनमें कुछ न कुछ विकृति आये बिना नहीं रहती। पुराना साहित्य जीर्ण शीर्ण दुर्लभ या अलभ्य होता रहता है, उसके स्थानमें नया साहित्य बनता रहता है