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जैनसाहित्य और इतिहास
मूलसंघकी मानतायें किसी तरह हो ही नहीं सकतीं
इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरिअत्तं ।
कक्कसकेसग्गहणं छठं च अण्णुव्वदं णाम ।। इसके सिवाय श्रीभूषणजीने पद्मनन्दि या कुन्दकुन्दको ही मूल संघका उत्पादक बना डाला है ! परन्तु इस ओर आपका ध्यान ही नहीं गया कि ' कई संघ'की जगह 'मूलं संघ' कर कर देनेसे कुन्दकुन्दका समय वि० सं० ७५३ हो जाता है' जो कि सर्वथा अविश्वसनीय है। __ श्रीभूषणजी दर्शनसारकी गाथाओंमें पूर्वोक्त उलट फेर करके ही सन्तुष्ट नहीं हुए हैं, उन्होंने मूल संघको अतिशय निन्द्य और आधुनिक सिद्ध करने के लिए अपने ‘प्रतिबोध-चिन्तामणि' नामक संस्कृत ग्रन्थके प्रारंभमें एक कथा भी गढ़कर लिख डाली है जिसका सार यहाँ दिया जाता है
" एक बार अनन्तकीर्ति आचार्य गिरनारपर्वतपर बन्दनाके लिए गये, वहाँ उन्होंने पद्मनन्दि आदि बहुतसे निर्दय, पापी और क्रियाहीन कापालिकोंको देखा
और उनकी भलाई के लिए उपदेश दिया जिससे वे हिंसाका त्याग करके ब्रह्मचारी हो गये । कापालिक लोग चकि हाथमें मयूरकी पिच्छि रखते और गलेमें लिंग पहनते थे, इसलिए आचार्यने उनकी 'मयूरभंगी' संज्ञा रख दी। आगे कालयोगसे यह मयूरशृंगी संघ बहुत फैल गया ।
"इसके पश्चात् पद्मनन्दिने अपना नाम प्रसिद्ध करने के लिए नन्दिसंघ नामका संघ स्थापित किया और उज्जयिनीमें अपने गुरुके ही साथ विवाद करना शुरू कर दिया । कौलिक मतके ही समान वह अपने पक्षका प्रतिपादन करने लगा और गुरुसे बोला, 'मेरे इन वचनोंकी साक्षी स्वयं शारदा देवी हैं' और मन्त्र-बलसे १ परिवर्तित गाथाओंने यह रूप धारण कर लिया है
सो समणसघंवजो पउमनंदी हु समयमिच्छत्तो । चत्तोवसमो रुद्दो मूलं संघ परूवेदि ।। सत्तसये तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ।
गिरिनारे वरगामे मूलो संघो मुणेयव्वो ।। २ यह ग्रन्थ सोजित्रा गद्दीके अन्तिम भट्टारकके पास था और उन्हींके कृपासे मुझे सन् १९०८ में कुछ घण्टोंके लिए पढ़नेको मिला था ।