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जैनसाहित्य और इतिहास
और शुद्ध आध्यात्मिकों को भी जो केवल संघ-भेदके कारण इतना नीच और निन्द्य चित्रित कर सकते हैं, वे और क्या नहीं कर सकते ? __ काष्ठा संघ और मूल संघ दोनों ही दिगम्बर सम्प्रदायके संघ हैं, दोनों एक ही सिद्धान्तके माननेवाले हैं, दोनोंमें कोई बड़े मत-भेद भी नहीं हैं और दोनों ही एक दूसरेके आचार्योके ग्रन्थोंका पठन-पाठन करते हैं । फिर भी श्रीभूषण भट्टारक अपने सधर्मी और पूज्य कुन्दकुन्दाचार्यको जिस रूपमें चित्रित करते हैं उसे देखकर किसे परिताप न होगा ?
अभी हाल ही हमें श्रीभूषण भट्टारकका शान्तिनाथपुराण नामका ग्रंथ यहाँके ऐलक पन्नालाल सरस्वती-भवनमें (३२ क) मिला है । उसकी प्रशस्तिसे जिसे हम आग दे रहे हैं उनके स्थान और समय आदिका पूरा परिचय मिल जाता है । उसके अनुसार वे काष्ठासंघके नन्दीतट गच्छक विद्या गणमें हुए हैं। उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है-रामसेनके अन्वयमें क्रमसे नेमिसेन, धर्मसेन, विमलसेन, विशालकीर्ति, विश्वसेन और विद्याभूषण हुए और इन विद्याभूषणके पट्ट-कमलको प्रफुल्लित करनेवाले सूर्यके समान श्रीभूपण हुए । उन्होंने वि० संवत् १६५९, अधन सुदी तेरस गुरुवारको यह पुराण लिखा।
गुर्जर देशमें सोजित्रा नामका नगर है, वहाँ नेमिनाथके मन्दिरके समीप इस ४०२५ श्लोक परिमित ग्रन्थकी रचना की गई। __ पूर्वोक्त-सरस्वती भवनमें ही श्रीभूषणके शिष्य भट्टारक चन्द्रकीर्तिका बनाया हुआ 'पार्श्वपुराण' ग्रन्थ है। उससे भी श्रीभूपणकी उक्त गुरुपरम्परा तथा समयादिकी पुष्टि होती है। यह पार्श्वपुराण वैशाख सुदी ७, गुरुवार, सं० १६५४ को देवगिरि ( दौलताबाद ) के पार्श्वनाथ-चैत्यालयमें बनकर समाप्त हुआ था।
चन्द्रकीर्तिने अपने उक्त गुरुजीको सच्चारित्रतपोनिधि, विद्वानोंके अभिमानशिखरको तोड़नेवाला वज्र, स्याद्वादविद्याचण बतलाया है और कहा है कि उनके
१ सोजित्राके पूर्वोक्त भट्टारकजीने मुझे बतलाया था कि वे मलखेड (निजाम ) की गद्दीके भी अधिकारी है और वह गद्दी मूलसंघकी है। एक मजेकी बात उन्होंने यह भी बतलाई थी कि उस तरफके शिष्योंमें जब वे जाते हैं, तब गोपुच्छ छोड़कर मयूरपिच्छि ले लेते हैं ! दौलताबाद मलखेडके ही इलाकेमें है, अतएव चन्द्रकीति शायद मलखेडसे ही दौलताबाद गये होंगे।