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जैनसाहित्य और इतिहास
सयलहं भवभमणभवंतराई, महु वंछिउ करहि णिरंतराई । ता साहुसमीहिउ कियउ सव्वु, राउलुविवाहु भवभमणु भन्छ । वक्खाणिउ पुरउ हवेइ जाम, संतुहउ वीसलु साहु ताम । जोइणिपुरवरि णिवसंतु सिटु, साहुहि घरे सुत्थियणहु घुटु ।। पणसहिसहिय तेरहसयाई, णिवविक्रम संवच्छरगयाइं । वइसाहपहिलइ पक्खि बीय, रविवारि समित्थउ मिस्सतीय ।। चिरु वत्थुबंधि कइ कियउ जंजि, पद्धडियबंधि मई रइ उ तं जि । गंधव्वे कण्हडणंदणेण, आयहं भवाइं किय थिरमणेण ।।
महु दोसु ण दिजइ पुट्विं कइउ, कइवच्छराई तं सुत्तु लइउ । परन्तु जान पड़ता है कि उस समय इन पंक्तियोंका ठीक ठीक अर्थ नहीं समझा गया था । वास्तवमें इसका भावार्थ यह है
“ जिसके उपरोध या आग्रहसे कविने यह पूर्वभवोंका वर्णन किया ( अब मैं) उस भव्यका नाम प्रकट करता हूँ। पहले पट्टण या पानीपतमें छंगे साहु नामके एक साहु थे। उनके खेला साहु नामके गुणी पुत्र हुए । फिर खेला साहुके बीसल साहु हुए जिनकी पत्नीका नाम वीरो था । वे गुणी श्रोता थे । एक दिन उन्होंने अपने चित्तमें सोचा ( और कहा ) कि हे कण्हके पुत्र पंडित ठक्कुर ( गन्धर्व ), वल्लभराय ( कृष्ण तृतीय ) के परम मित्र और उपकारित कवि पुष्पदन्तने सुन्दर और शब्दलक्षणविचित्र जो जसहरचरित बनाया है उसमें यदि राजा और कौलका प्रसंग, यशोधरका आश्चर्यजनक विवाह और सबके भवांतर और प्रविष्ट कर दो, तो मेरा मन-चाहा हो जाय । तब मैंने वही सब कर दिया, जो साहुने चाहा था--राउलु ( राजा ) और कौलका प्रसंग, विवाह
और भवांतर। फिर जब बीसल साहुके सामने व्याख्यान किया, सुनाया, तब वे संतुष्ट हुए । योगिनीपुर (दिल्ली) में साहुके घर अच्छी तरह सुस्थितिपूर्वक रहते हुए विक्रम राजाके १३६५ संवत्में पहले वैशाखके दूसरे पक्षकी तीज रविवारको यह कार्य पूरा हुआ। पहले कवि (वच्छराय ) ने जिसे वस्तुछन्दमें बनाया था, वही मैंने पद्धड़ीबद्ध रचा । कन्हड़के पुत्र गन्धर्वने स्थिर मनसे भवांतरोंको कहा है। इसमें कोई मुझे दोष न दे । क्योंकि पूर्व में वच्छरायने यह कहा था। उसीके
१ ' पट्टण ' पर 'पानीपत ' टिप्पणी दी हुई है ।