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जैनसाहित्य और इतिहास
नत्वादितः सकल (तीर्थ) कृत (तो) कृतार्थान् , सर्वोपकारनिरतास्त्रिविधेन नित्यम् ।
वश्ये तदीय गुणगर्भमहापुराणं, संक्षेपतोऽर्थनिकरं शृणुत प्रयत्नात् ।। अन्त-धारायां पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयात्युच्चकैः
श्रीमत्सागरसेनतो यतिपतेात्वा पुराणं महत् । मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगता श्रीनन्दिशिष्यो बुधः
कुर्वे चारु पुराणसारममलं श्रीचन्द्रनामामुनिः ।। श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे यक्षपूत्य(अशीत्य?)धिकवर्षसहस्रे पुराणसाराभिधानं समाप्तं । शुभं भवतु । लेखकपाठकयोः कल्याणम् ।
इन्हीं पद्मचरितके टिप्पणकार और पुराणसारके कर्त्ता श्रीचन्द्रमुनिका बनाया हुआ पुष्पदन्तकृत महापुराणका एक टिप्पण है, जिसका दूसरा भाग अर्थात् उत्तरपुराण-टिप्पण उपलब्ध है। उसके अन्तमें लिखा है--
श्रीविक्रमादित्य-संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराण-विषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तात् परिज्ञाय मूलटिप्पणिकां चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणं अज्ञपातमीतेन श्रीमद्वला( त्का)रगणश्रीसंघा नंद्या)चार्यसत्कविशिष्येण श्रीचंद्रमुनिना निजदौर्दडाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य । १०२ ।
इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचंद्राचार्यविरचितं समाप्तम् ।
अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दः संवत् १५७५ वर्षे भादवा सुदी ५ बुद्धदिने कुरुजांगलदेशे सुलतान सिकंदरपुत्र सुलतान इब्राहिम राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तदाम्नाये जैसवाल चौ० टोडरमल्लु चौ० जगसीपुत्र इदं उत्तरपुराणटीका लिखापितं । शुभं
१ यह ग्रन्थ जयपुरके पाटोदीके मन्दिरके भंडारमें (गठरी नं० १३, ग्रन्थ तीसरा, पत्र ५७, श्लो० १७०० ) है । इसकी प्रशस्ति स्व० पं० पन्नालालजी बाकलीवालने आश्विन-सुदी ५ वीर सं० २४४७ के जैनमित्रमें प्रकाशित कराई थी और मेरे पास भी उन्होंने उसकी नकल भेजी थी। इसी सम्बन्धमें उन्होंने अपने ता० १६-६-२३ के पत्रमें लिखा था कि " उत्तरपुराणकी टिप्पणी मँगाई सो वह गठरी नहीं मिली थी-आज ढूँढ़कर निकाली है। उसके आदि अंतके पाठकी भी नकल है । 'श्रीचंद्रमुनिना में 'प्रभा' शब्द छूट गया मालूम होता है । परंतु श्लोकसंख्यामें फर्क होनेसे शायद श्रीचंद्रमुनि दूसरा भी हो सकता है।"
२ यहाँ निश्चयसे श्रीचन्द्राचार्यकी जगह प्रभाचन्द्राचार्य लिखा गया है । लिपिकर्ताकी स्पष्ट भल है।