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जैन साहित्य और इतिहास
सत्रकी असाढ़ सुदी दसवीं को बनाया' ।
इस परिचयसे कविकी प्रकृति और उनकी निस्संगताका हमारे सामने एक चित्र-सा खिंच जाता है । एक बड़े भारी साम्राज्य के महामंत्रीद्वारा अतिशय सम्मानित होते हुए भी वे सर्वथा अकिंचन और निर्लिप्त ही रहे जान पड़ते हैं । नाममात्र के गृहस्थ होकर एक तरह से वे मुनि ही थे ।
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एक जगह वे भरत महामात्य से कहते हैं कि " मैं धनको तिनकेके समान गिनता हूँ | उसे मैं नहीं लेता । मैं तो केवल अकारण प्रेमका भूखा हूँ और इसीसे तुम्हारे महलमें हूँ* । मेरी कविता तो जिन चरणोंकी भक्तिसं ही स्फुरायमान होती है, जीविका - निर्वाहके खयालसे नहीं ।
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इस तरहकी निष्पृहतामें ही स्वाभिमान टिक सकता है और ऐसे ही पुरुषको • अभिमानमेरु पद शोभा देता है | कविने एक दो जगह अपने रूपका भी वर्णन कर दिया है, जिससे मालूम होता है कि उनका शरीर बहुत ही दुबला
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१ सिद्धिविलासिणिमणहरदूएं, मुद्धाएवीतणुसंभूएं । गिद्धण सघणलोय समचित्तें, सव्वजीवणिक्कारणमित् ॥ २१ सद्दसलिलपरिवड्ढियसोत्तें, केसवपुत्ते कासवगोत्तें । विमलसरासइजणियविलासें, सुण्णभवणदेव उलणिवासें ॥ २२ कलिमलपवलपडलपरिचत्तें, णिग्घरेण णिष्पुत्तकलत्तें । णइ-वावी-तलाय-सरह्णाणें, जर-चीवर वक्कल- परिहाणें || २३ धीरें धूल धूसरियंगें, दूरुयरुज्झिय- दुजणसंगें | महिसयणयलें करपंगुरणें, मग्गियपंडियपंडियमरणें ॥ २४ मणखेड पुरवरे णिवसंतें, मणे अरहंतु देउ झायंतें । भरमण्णणिजे नयणिलएं, कव्वपबंध जणियजणपुलंएं ।। २५ पुप्फयंतकरणा धुयपंकें, जइ अहिमाणमेरुणामकें |
कउ कव्वु भत्तिए परमत्यें, जिणपयपंकयमउलियहत्थे ॥ २६ कोहणसंवच्छरे आसाढए, दहमए दियहे चंदरुइरूढए ।
२ धणु तणुसमु मज्झु ण तं गहणु, गेहु णिकारिमु इच्छमि ।
देवीसुअ सुदणिहि तेण हउं, णिलए तुहारए अच्छमि ॥ - २० उत्तर पु० ३ मज्झु कइतणु जिणपयभत्तिहें, पसरइ णउ णियजीवियवित्ति । -
- उ० पु०