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जैनसाहित्य और इतिहास
कविके आश्रयदाता महाभात्य भरत । पुष्पदन्त ने दो आश्रयदाताओंका उल्लेख किया है, एक भरतका और दूसरे नन्नका । ये दोनों पिता-पुत्र थे और महाराजाधिराज कृष्णराज (तृतीय) के महामात्य । कृष्ण राष्ट्रकुट वशका अपने समयका सबसे पराक्रमी, दिग्विजयी और अन्तिम सम्राट् था। इससे उसके महामात्योंकी योग्यता और प्रतिष्ठाकी कल्पना सहज ही की जा सकती है । नन्न शायद अपने पिताकी मृत्युके बाद महामात्य हुए होंगे । यद्यपि उस कालमें योग्यतापर कम ध्यान नहीं दिया जाता था, फिर भी बड़े बड़े राजपद प्रायः वंशानुगत होते थे।
भरतके पितामहका नाम अण्णय्या, पिताका एयण और माताका श्रीदेवी था । वे कोण्डिन्य गोत्रके ब्राह्मण थे । कहीं कहीं इन्हें भरत भट्ट भी लिखा है । भरतकी पत्नीका नाम कुन्दव्वा था जिसके गर्भसे नन्न उत्पन्न हुए थे। ___ भरत महामात्य-वंशमें ही उत्पन्न हुए थे परन्तु सन्तानक्रमसे चली आई हुई यह लक्ष्मी (महामात्यपद) कुछ समयसे उनके कुलसे चली गई थी जिसे उन्होंने बड़ी भारी आपत्तिके दिनोंमें अपनी तेजस्विता और प्रभुकी सेवासे फिर प्राप्त कर लिया थौँ । __ भरत जैनधर्मके अनुयायी थे। उन्हें अनवरत-रचित-जिननाथ-भाक्त और जिनवर-समय-प्रासादस्तम्भ अर्थात् निरन्तर जिनभगवानकी भक्ति करनेवाले और जैनशासनरूप महलके स्तम्भ लिखा है ।
कृष्ण तृतीयके ही समयमें और उन्हींके सामन्त अरिकेसरीकी छत्रछायामें बने हुए नीतिवाक्यामृतमें अमात्यके अधिकार बतलाये गये हैं-आय, व्यय, स्वामिरक्षा और गनतंत्रकी पुष्टि । “आयो व्ययः स्वामिरक्षा तंत्रपोषणं चामात्यानामधिकारः।” उस समय साधारणतः रेवेन्यू-मिनिस्टरको अमात्य कहते थे । परन्तु भरत महामात्य थे। इससे मालूम होता है कि वे रेवेन्यूमिनिस्टरीके सिवाय राज्यके अन्य विभागोंका भी काम करते थे । राष्ट्रकूट-कालमें मन्त्रीके लिए शास्त्रज्ञके सिवाय शस्त्रज्ञ भी होना आवश्यक था, अर्थात् जरूरत होनेपर उसे युद्धक्षेत्रमें भी जाना पड़ता था। १ महमत्तवंसधयवडु गहीरु ( महामात्यवंशध्वजपटगभीर )। २ तीव्रापद्दिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना,,
सन्तानक्रमतो गताऽपि हि रमाऽकृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं, सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्प्रतम् ।। -म० पु० १५ वीं सन्धि