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जैनसाहित्य और इतिहास
थे', अर्थात् उन्होंने अनेक लड़ाइयाँ लड़ी थीं।
बहुत ही मनोहर, कवियोंके लिए कामधेनु, दीनदुखियोंकी आशा पूरी करनेवाले, चारों ओर प्रसिद्ध, परस्त्रीपराङ्मुख, सच्चरित्र, उन्नतमति और सुजनोंके उद्धारक थे।
उनका रंग साँवला था, हाथीकी सूंडके समान उनकी भुजायें थीं, अङ्ग सुडौल थे, नेत्र सुन्दर थे और वे सदा प्रसन्नमुख रहते थे ।
भरत बहुत ही उदार और दानी थे। कविके शब्दोंमें बलि, जीमूत, दधीचि आदिके स्वर्गगत हो जानेसे त्याग गुण अगत्या भरत मंत्रीमें ही आकर बस गया था।
एक सूक्तिमें कहा है कि भरतके न तो गुणोंकी गिनती थी और न उनके शत्रुओंकी । यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि इतने बड़े पदपर रहनेवालेके, चाहे वह कितना ही गुणी और भला हो, शत्रु तो हो ही जाते हैं । ___ इस समयके विचारशील लोग जिस तरह मन्दिर आदि बनवाना छोड़कर विद्योपासनाकी आवश्यकता बतलाते हैं उसी तरह भव्यात्मा भरतने भी वापी, कूप, तड़ाग और जैनमन्दिर बनवाना छोड़कर वह महापुराण बनवाया जो संसारसमुद्रको आरामसे तरनेके लिए नावतुल्य हुआ । भला उसकी वन्दना करनेको १ ......... गोसेसकला विण्णाणकुसलु । पाययकइकव्वरसावलुद्ध, संपीयसरासइसुरहिदुद्ध ॥
कमलच्छु अमच्छरु सच्चसधु, रणभरधुरधरणुग्घुडखंधु । २ सविलासविलासिणिहियहथेणु, सुपसिद्धमहाकइकामधेणु ।
काणीणदीणपरिपूरियासु, जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥ पररमणिपरम्मुहु सुद्धसीलु, उष्णयमइ सुयणुद्धरणलीलु । ३ श्यामरुचिनयनसुभगं लावण्यप्रायमङ्गमादाय ।
भरतच्छलेन सम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ॥ ४ देखो, पृष्ठ ३०३ के टिप्पणका पद्य । ५ धनधवलताश्रयाणामचलस्थितिकारिणां मुहुर्धमताम् ।
गणनैव नास्ति लोके भरतगुणानामरीणां च ॥