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महाकवि पुष्पदन्त
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घटना है । इस तरह वे ८८१ से लेकर कमसे कम ८९४ तक, लगभग तेरह वर्ष, मान्यखेटमें महामात्य भरत और ननके सम्मानित अतिथि होकर रहे, यह निश्चित है । उसके बाद वे और कब तक जीवित रहे, यह नहीं कहा जा सकता । ___ बुध हरिषेणकी धर्मपरीक्षा मान्यखेटकी लूटके कोई पन्द्रह वर्ष बादकी रचना है । इतने थोड़े ही समयमें पुष्पदन्तकी प्रतिभाकी इतनी प्रसिद्धि हो चुकी थी। हरिषेण कहते हैं कि पुष्पदंत मनुष्य थोड़े ही हैं, उन्हें सरस्वती देवी कभी नहीं छोड़ती, सदा साथ रहती है ।
एक शंका . महापुराणकी ५० वीं सन्धिके प्रारंभमें जो 'दीनानाथधनं' आदि संस्कृत पद्य है और पृ० ३२७ के फुटनाटमें उद्धृत किया जा चुका है, और जिसमें मान्यखेटके नष्ट होने का संकेत है, वह श० सं०८९४ के बादका है और महापुराण ८८७ में ही समाप्त हो चुका था। तब शंका होती है कि वह उसमें कैसे आया ? - इसका समाधान यह है कि उक्त पद्य ग्रन्थका अविच्छेद्य अंग नहीं है । इस तरहके अनेक पद्य महापुराणकी भिन्न भिन्न संधियोंके प्रारंभमें दिये गये हैं। ये सभी मुक्तक हैं, भिन्न भिन्न समयमें रचे जाकर पीछेसे जोड़े गये हैं और अधिकांश महामात्य भरतकी प्रशंसाके हैं । ग्रन्थ-रचना-क्रमसे जिस तिथिको जो संधि प्रारंभ की गई, उसी तिथिको उसमें दिया हुआ पद्य निर्मित नहीं हुआ है। यही कारण है कि सभी प्रतियोंमें ये पद्य एक ही स्थानपर नहीं मिलते हैं । एक पद्य एक प्रतिमें जिस स्थानपर है, दूसरी प्रतिमें उस स्थानपर न होकर किसी और ही स्थानपर है। किसी किसी प्रतिमें उक्त पद्य न्यूनाधिक भी हैं। अभी बम्बईके सरस्वतीभवनकी प्रतिमें हमें एक पूरा पद्य और एक अधूरा पद्य अधिक भी मिला है जो अन्य प्रतियोंमें नहीं देखा गया ।
यशोधरचरितकी दुसरी, तीसरी और चौथी सन्धियोंमें भी इसी तरहके तीन १-हरति मनसो मोहं द्रोहं महाप्रियजंतुजं । भवतु भविनां दंभारंभः प्रशांतिकृतो । जिनवरकथा ग्रन्थप्रस्नागमितस्त्वया। कथय कमयं तोयस्तीते गुणान् भरतप्रभो। यह पद्य बहुत ही अशुद्ध है ।
-- ४२ वी संधिके बाद २ आकल्पं भरतेश्वरस्तु जयतायेनादरात्कारिता ।
श्रेष्ठायं भुवि मुक्तये जिनकथा तत्त्वामृतस्यन्दिनी ।-४३ वी सन्धिके बाद