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जैनसाहित्य और इतिहास
भारत के प्राचीन राजवंश (तृ० भा० पृ० ५६ ) में इनकी एक पदवी 'कन्धार-पुरवराधीश्वर' लिखी है । परन्तु हमारी समझमें वह भ्रमवश लिखी गई है । वास्तव में कालिंजरपुरवराधीश्वर' होनी चाहिए। क्योंकि उन्होंने चेदिके कलचुरि-नरेश सहस्रार्जुनको जीता था और कालिंजरपुर चेदिका मुख्य नगर था । दक्षिणका कलरि राजा बिज्जल भी अपने नामके साथ 'कालिंजरपुरवराधीश्वर' पद लगाता था । अमोघवर्ष तृतीय या बद्दिगके तीन पुत्र थे --तुडिगु या कृष्ण तृतीय, जगत्तुंग और खोट्टिगदेव । कृष्ण सबसे बड़े थे जो अपने पिताके बाद गद्दीपर बैठे और चूँकि सरे जगत्तुंग उनसे छोटे थे तथा उनके राज्यकालमें ही स्वर्गगत हो गये थे, इस लए तीसरे पुत्र खोट्टिगदेव गद्दीपर बैठे । कृष्ण के पुत्रका इस बीच देहान्त हो या था और पौत्र भी छोटा था, इसलिए खोट्टिगदेवको अधिकार मिला ।
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कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वंश के सबसे अधिक प्रतापी और सार्वभौम राजा थे । नके पूर्वजोंका साम्राज्य उत्तरमें नर्मदा नदीसे लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैला आ था जिसमें सारा गुजरात, मराठी सी० पी०, और निज़ाम राज्य शामिल || मालवा और बुन्देलखण्ड भी उनके प्रभावक्षेत्र में थे । इस विस्तृत साम्राज्यको ष्ण तृतीयने और भी बढ़ाया और दक्षिणका सारा अन्तरीप भी अपने अधिकार में र लिया | कहाड़के ताम्रपत्रों के अनुसार उन्होंने पाण्ड्य और केरलको हराया, हिलसे कर वसूल किया और रामेश्वर में अपनी कीर्तिबल्लरीको लगाया । ये ताम्रपत्र ई सन् ९५९ ( श० सं० ८८१ ) के हैं और उस समय लिखे गये हैं जब ष्णराज अपने मेलपाटीके सेना-शिविर में ठहरे हुए थे और अपना जीता हुआ ज्य और धन-रत्न अपने सामन्तों और अनुगतोंको उदारतापूर्वक बाँट रहे थे । नके दो ही महीने बाद लिखी हुई श्रीसोमदेवसूरिकी यशस्तिलक - प्रशस्ति से भी सकी पुष्टि होती है। इस प्रशस्ति में उन्हें पाण्ड्य, सिंहल, चोल, चेर आदि शको जीतनेवाला लिखा है ।
देवली के शिलालेखसे मालूम होता है कि उसने कांचीके राजा दन्तिगको
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१ एपिग्राफिया इंडिका जिल्द ४ पृ० २७८ ।
२ वंदीणदिण्णघण - कणयपयरु महिपरिभमंतु मेलाडिण्यरु |
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३ पाण्ड्य सिंहल - चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य...
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४ जर्नल बाम्बे ब्रांच रा० ए० सो० जिल्द १८, पृ० २३९ और लिस्ट आफ इन्स्क्रप्शन्स सी० पी० एण्ड बरार, पृ० ८१ ।
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