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जैनसाहित्य और इतिहास
थे और उसे छोड़कर कार्यवश अचलपुर गये थे । वहाँपर उन्होंने वि० सं० १०४४ में अपना यह ग्रंथ समाप्त किया था। इस ग्रंथके प्रारम्भमें अपभ्रंशके चतुर्मुख, स्वयंभु और पुष्पदन्त इन तीन महाकवियोंका स्मरण किया गया है। इससे सिद्ध है कि वि० सं० १०४४ या श० सं० ९०९ से पहले ही पुष्पदन्त एक महाकविके रूपमें प्रसिद्ध हो चुके थे । अर्थात् पुष्पदन्तका समय ७५९ और ९०९ के बीच होना चाहिए । न तो उनका समय श० सं० ७५९ के पहले जा सकता है और न ९०९ के बाद । । अब यह देखना चाहिए कि वे श० सं० ७५९ (वि० सं० ८९४) से कितने बाद हुए है।
कविने अपने ग्रंथों में तुडिणु, शुभतुंगं, वल्लभनरेन्द्र और कण्हरायका उल्लेख किया है और इन सब नामोंपर ग्रंथोंकी प्रतियों और टिप्पण ग्रंथों में 'कृष्णराजः' टिप्पणी दी है। इसका अर्थ यह हुआ कि ये सभी नाम एक ही राजाके हैं । वल्लभराय या वल्लभनरेन्द्र राष्ट्रकूट राजाओंकी सामान्य पदवी थी, इसलिए यह भी मालूम हो गया कि कृष्ण राष्ट्रकूटवंशके राजा थे।
राष्ट्रकूटोंकी राजधानी पहले मयूरखंडी ( नासिक ) में थी, पीछे अमोघवर्ष १ इह मेवाड़देसे जणसंकुले, सिरिउजपुरणिग्गयधक्कडकुले । ..
गोवद्धणु णामें उप्पण्णओ, जो सम्मत्तरयणसंपुण्णओ ।। तहो गोवद्धणासुपियगुणवइ, जा जिणवरपय णिच्चवि पणवइ । ताए जणिउ हरिसेणणाम सुओ, जो संजाउ विवुहकइविस्सुओ ॥ सिरिचित्तउडुचएवि अचलउरेहो, गउ णियकजें जिणहरपउरहो ।
तहिं छंदालंकारपसाहिइ, धम्मपरिक्ख एह ते साहिय ॥ २ विक्कमणिवपरियत्तइ कालए, ववगए वरिस सहसचउतालए । ३ चउमुहु कव्वविरयणे सयंभुवि, पुष्फयंतु अण्णाणणिसंभुवि । तिण्णवि जोग्ग जेण तं सासइ, चउमुहमुहे थिय ताम सरासइ । जो सयंभु सोहेउ पहाणउ, अहकह लोयालोय वि याणउ ।
पुष्फयंतु णवि माणुसु वुच्चइ, जो सरसइए कयावि ण मुच्चइ । ४ भुवणेकरामु रायाहिराउ, जहि अच्छइ 'तुडिगु' महाणुभाउ । म०पु०१-३-३ ५ सुहतुंगदेवकमकमलभसलु, णीसेस कलाविण्णाणकुसळु । म० पु. १-५-२ ६ वलभणरिंदघरमहत्तरासु ।-य० च० का प्रारंभ ।