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जैनसाहित्य और इतिहास
निर्विष्णसे हो रहे थे कि एक दिन उन्हें स्वप्नमें सरस्वती देवीने दर्शन दिया और कहा कि जन्ममरण-रोगके नाश करनेवाले अरहंत भगवानको, जो पुण्य-वृक्षको सींचने के लिए मेघतुल्य हैं, नमस्कार करो ।' यह सुनते ही कविराज जाग उठे
और यहाँ वहाँ देखते हैं तो कहीं कोई नहीं है, वे अपने घरमें ही हैं । उन्हें बड़ी विस्मय हुआ। इसके बाद भरतमंत्रीने आकर उन्हें समझाया और तब वे उत्तरपुराणकी रचनामें प्रवृत्त हुए।
कविके ग्रंथोंसे मालूम होता है कि वे महान् विद्वान् थे । उनका तमाम दर्शनशास्त्रोंपर तो अधिकार था ही, जैनसिद्धान्तकी जानकारी भी उनकी असाधारण थी। उस समयके ग्रन्थकर्ता चाहे वे किसी भी भाषाके हों, संस्कृतज्ञ तो होते ही थे। यद्यपि अभी तक पुष्पदन्तका कोई स्वतंत्र संस्कृत ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है, फिर भी वे संस्कृतमें अच्छी रचना कर सकते थे। इसके प्रमाणस्वरूप उनके वे संस्कृत पद्य पेश किये जा सकते हैं जो उन्होंने महापुराण और यशोधरचरितमें भरत और नन्नकी प्रशंसामें लिखे हैं । व्याकरणकी दृष्टि से यद्यपि उनमें कहीं कहीं कुछ स्खलनायें पाई जाती हैं, परन्तु वे कवियोंकी निरंकुशताकी ही द्योतक हैं, अज्ञानताकी नहीं।
कविकी ग्रन्थ-रचना महाकवि पुष्पदन्तके अब तक तीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं और सौभाग्यकी बात है कि वे तीनों ही आधुनिक पद्धतिसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित हो चुके हैं।
१ तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु ( त्रिषष्टिमहापुरुषगुणालंकार ) या महापुराण । यह आदिपुराण और उत्तरपुराण इन दो खडोंमें विभक्त है । ये दोनों अलग अलग भी मिलते हैं । इनमें वेसठ शलाका पुरुषोंके चरित हैं ।
१ मणि जाएण किं पि अमणोजें, कइवयदियह केण वि कजे । णिविण्णउ थिउ जाम महाकइ, ता सिवणंतरि पत्त सरासइ । भणइ भडारी सुहयरुओहं, पणमइ अरुहं सुहयरुमेहं । इय णिसुणेवि विउद्धउ कइवरु, सयलकलायरु ण छणससहरु । दिसउ णिहालइ किं पि ण पेच्छइ, जा विम्हियमइ णियघरि अच्छइ ।
-महापुराण ३८-२