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चामुण्डराय और उनके समकालीन आवार्य
पहले चामुण्डराय बस्तिमें थी परन्तु अब उसका पतों नहीं कि कहाँ गई और अब उसके बदलेमें एचणके बनवाये हुए मन्दिर से नेमिनाथकी दूसरी प्रतिमा लाकर स्थापित कर दी गई है जो पाँच फीट ऊँची है और दक्षिण-कुक्कुट-जिन बाहुबलिस्वामीकी उस विशाल मूर्तिके लिए कहा गया है जो जगत्प्रसिद्ध है। एक प्रवाद था कि भरतचक्रवर्तीने उत्तरमें बाहुबलिकी प्रतिमा निर्माण कराई थी, जो कुक्कुट साँसे व्याप्त हो गई थी। इसे वही न समझ लिया जाय, यह उससे पृथक् है, इसे बतलाने के लिए दक्षिण विशेषण दिया गया है।
उक्त बाहुबलि स्वामीकी विशाल प्रतिमाके सुन्दर और आकर्षक मुखके विषयमें कहा गया है कि उसे सर्वार्थसिद्धि के देवोंने और सर्वावधि-परमावधिज्ञानके धारी योगियोंने दूरसे देखो।
उनके बनवाये हुए जिनमन्दिरका नाम 'इंसिपभार' या 'ईषत्प्राग्भार' था । जो कि शायद इस समय चामुण्डरायबस्तिके नामसे प्रसिद्ध है। कहा गया है कि उसका तलभाग वज्र जैसा है, और उसपर सोनेका कलश है।
चामुण्डरायने एक स्तंभ भी बनवाया था जिसके ऊपर यक्षोंकी मूर्तियाँ थीं और जिनके मुकुटोंके किरण-जलसे सिद्धोके चरण धुलते रहते थे । डा० उपाध्येका खयाल है कि यह स्तंभ 'त्यागद ब्रह्मदेव' स्तंभ है, जो विन्ध्यगिरिपर है।
ये गंगवज्र मारसिंहके गुरु अजितसेनाचार्यके ही शिष्य थे । अजितसेन अपने समयके बहुत बड़े प्रभावशाली आचार्य थे और वे आर्यसेनके शिष्य थे । गोम्मटसारके कर्त्ताने उन्हें ऋद्धिप्राप्त गणधरदेवादि सदृश गुणी और भुवन-गुरु कहा १ गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटासहरुवरि गोम्मटजिणो य ।
गोम्मटरायविणिम्मियदक्खिणकुक्कुडजिणो जयउ ।। ९६ २ जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्ठसिद्धिदेवेहिं ।
सव्वपरमोहिजोगिहिं दिलं सो गोम्मटो जयउ ॥ ९६९ ३ वजयलं जिणभवणं इसिपभारं सुवण्णकलसं तु ।
तिहुवणपडिमाणिकं जेण कयं जयउ सो राओ ।। ९७० सिद्धलोक या आठवीं पृथवीका नाम ' ईषत्प्राग्भार ' है । उसीके अनुकरणमें यह नाम रक्खा गया है । देखो, त्रिलोकसारकी ५५६ वीं गाथा । ४ जेणुब्भियथंभुवरिमजक्खतिरीटकिरणजलधोया । सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ ॥ ९७१ -क० का०