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जनसाहित्य और इतिहास
आचार्य नेमिचन्द्रने लिखा है कि जिनके चरणोंके प्रसादसे वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य संसार-समुद्रसे पार हो गये उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार हो । इससे भी मालूम होता है कि ये वीरनन्दि चन्द्रप्रभ काव्यके कर्त्ता ही हैं जो अपनेको अभयनन्दिका शिष्य बतलाते हैं । आगे इन सबके अस्तित्व-कालपर जो. विचार किया गया है, उससे भी यही निश्चय होता है ।
इन्द्रनन्दि नामके अनेक आचार्य हो गये हैं । हमारा खयाल है कि श्रुतावतार या श्रुतपंचमी कथाक की इन्द्रनन्दि यही होंगे, क्योंकि श्रुतावतारसे मालूम होता है कि वे सिद्धान्त शास्त्रोंसे खूब अच्छी तरह परिचित थे और गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) में उन्हें श्रुतसागरपारगामी लिखा भी है।
कनकनन्दिके विषयमें इतना ही मालूम होता है कि गोम्मटसारकी रचनामें उनका भी हाथ था और वे शायद इन्द्रनन्दिमे छोटे थे । कर्मकाण्डकी एक गाथाके अनुसार उन्होंने इन्द्रनन्दि गुरुके पास सब सिद्धान्त सुनकर सत्व-स्थानकी रचना की थी। पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके अनुसार आराके जैनसिद्धान्त भवनमें कनकनन्दि आचार्यका रचा हुआ 'त्रिभंगी' नामका एक ग्रन्थ है, जो १४०० श्लोक प्रमाण है और वे यही कनकनन्दि होंगे।
त्रिलोकसारकी व्याख्या कर्ता माधवचन्द्र विद्यदेव आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य मालूम होते हैं । मूलग्रन्थमें भी इनकी कई गाथायें सम्मिलित हैं और वे मूलमें शामिल की गई हैं । गोम्मटसारमें भी इनकी कई गाथायें संग्रह की गई हैं जो संस्कृत टीकाकी उत्थानिकासे मालूम होती हैं । संस्कृत गद्यमय क्षपणासार भी जो कि लब्धिसारमें शामिल है, इन्हीं माधवचन्द्रका है । __श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गोम्मटसार और त्रिलोकसार नामकी दो रचनायें प्रसिद्ध हैं और ये दोनों ही संग्रह ग्रन्थ हैं। इन दोनोंकी ही अधिकांश गाथायें धवल सिद्धान्त और तिलोयपण्णत्तिसे सार रूपमें संग्रह की गई हैं । इनमेंसे
१ जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलाहमुत्तिणो ।
वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं इंदणंदिगुरुं ॥ ४३६ ॥ क० का. २ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं ।
सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तहाणं समुद्दिहं ।। ३९६ ॥" ३ जैनहितैषी भाग १४, अंक ६, पृ० १६५-६६ ।