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महाकवि पुष्पदन्त
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दन्तके भतीजे हों तो पुष्पदन्तको भी बरारका ही रहनेवाला मानना चाहिए ।
बरारकी भाषा मराठी है । अभी ग० वा तगारे एम० ए०, बी० टी० नामक विद्वानने पुष्पदन्तको प्राचीन मराठीका महाकवि बतलाया है और उनकी रचनाओंमेंसे बहुतसे ऐसे शब्द चुनकर बतलाये हैं, जो प्राचीन मराठीसे मिलते जुलते हैं । वैयाकरण मार्कण्डेयने अपने प्राकृत-सर्वस्व ' में अपभ्रंश भाषाके नागर, उपनागर और वाचट ये तीन भेद किये हैं । इनमेंसे वाचटको लाट (गुजरात) और विदर्भ (बरार) की भाषा बतलाया है । सो पुष्पदन्तकी अपभ्रंश वाचट होनी चाहिए।
श्रीपतिने अपनी ' ज्योतिपरत्नमाला' पर स्वयं एक मराठी टीका लिखी थी, जो सुप्रसिद्ध इतिहासकार राजबाड़े को मिली थी और उन्होंने उसे सन् १९१४में प्रकाशित भी करा दिया था। मुझे उसकी प्रति अभी तक नहीं मिल सकी। उसके प्रारम्भका अंश इस प्रकार है-" ते या ईश्वररूपा कालात मि । ग्रंथुकर्ता श्रीपति नमस्कारी। मी श्रीपति रत्नाचि माला रचितो।” इसकी भाषा गीताकी प्रसिद्ध टीका ज्ञानेश्वरीसे मिलती जुलती है। इससे भी अनुमान होता है कि श्रीपति बरारके ही होंगे और इस लिए पुष्पदन्तका भी वहींका होना सम्भव है।
सबसे पहले पुष्पदन्तका हम मेलाड़ि या मेलपाटीके एक उद्यानमें पाते हैं और फिर उसके बाद मान्यखेटमें । मेलाड़ि उत्तर अर्काट जिलेमें है जहाँ कुछ कालतक राष्ट्रकूट महाराजा कृष्ण तृतीयका सेनासन्निवेश रहा था और वहीं उनका भरत मंत्रीसे साक्षात् होता है। निजाम-राज्यका वर्तमान मलखेड़ ही मान्यखेट है।
यद्यपि इस समय मलखेड़ महाराष्ट्रकी सीमाके अन्तर्गत नहीं माना जाता, परन्तु बहुतसे विद्वानोंका मत है राष्ट्रकूटोंके समयमें वह महाराष्ट्रमें ही गिना जाता थी। और इसलिए तब वहाँ तक वैदर्भी अपभ्रंशकी पहुँच अवश्य रही होगी।
१ देखो सह्याद्रि ( मासिकपत्र ) का अप्रैल १९४१ का अंक, पृ० २५३-५६ ।
२ कुछ थोड़ेसे शब्द देखिए-उक्कुरड-उकिरडा (बूरा), गंजोल्लिय-गाँजलेले (दुखी), चिक्खिल्ल=चिखल (कीचड़), तुप्प-तूप (धी), पंगुरण-पांघरूण (आढ़ना), फेड =फेडणे (लौटाना), बोक्कड बोकड़ (बकररा), आदि ।