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जैनसाहित्य और इतिहास
गचमल्लके महामात्य चामुण्डरायके प्रश्नके अनुरूप यह ग्रन्थ बनाया गया। इससे उक्त दोनों ग्रन्थोंके कर्ता नेमिचन्द्र सि० च० और उनके सहयोगियों-वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि, माधवचन्द्र-का समय भी विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वार्ध ठहरता है।
श्रीवादिराजसूरिने अपना पार्श्वनाथचरित काव्य श० सं० ९४७ (वि० सं० १०८२ ) में समाप्त किया है' और उन्होंने उसके प्रारम्भमें पूर्व कवियोंकी स्तुति करते हुए वीरनन्दिके चन्द्रप्रभकाव्यका स्पष्ट उल्लेख किया है। अर्थात् वि० सं० १०८२ तक उक्त काव्यकी ख्याति हो चुकी थी और इससे भी पूर्वोक्त समयकी पुष्टि होती है।
१ शाकाब्दे नगवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने
मासे कार्तिकनाम्नि बुद्धमहिते शुद्धे तृतीया दिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमती जैनी कथेयं मया निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥-पा० च० २ चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मनःप्रिया । कुमद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥ ३०-पा० च०