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जैनसाहित्य और इतिहास
(चतुर्थ) का राज्य-काल श० सं० ८९६ से ९०६ (वि० सं० १०३१-४१ ) तक निश्चित है। ये गंग-वज्र मारसिंहके उत्तराधिकारी थे। मारसिंह आचार्य अजितसेनके शिष्य थे और उन्हींके समीप बंकापुर ( धारवाड़) में उन्होंने समाधिपूर्वक देहत्याग किया था ।' वे बड़े भारी योद्धा थे और उन्होंने अनेक जैनमन्दिर निर्माण कराये थे । जगदेकवीर राचमल्ल भी उन्हींके समान जैनधर्मपर श्रद्धा रखते थे।
चामुण्डराय केवल महामात्य ही नहीं, वीर सेनापति भी थे । उन्होंने अपने स्वामीके लिए अनेक युद्ध जीते थे, गोविन्दराज, वेकोंडुराज आदि अनेक राजाओंको परास्त किया था और इसके उपलक्ष्यमें उन्हें समर-धुरंधर, वीर-मार्तण्ड, रणरंगसिंह, वैरिकुल-कालदण्ड, असहायपराक्रम, प्रतिपक्षराक्षस, भुजविक्रम, समर-परशुराम आदि विरुद प्राप्त हुए थे और कौन-सी उपाधि किस युद्ध के जीतनेपर मिली, इसका भी उल्लेख मिलता है । अपनी सत्यप्रियताके कारण वे सत्ययुधिष्ठिर भी कहे जाते थे।
जैनधर्मनिष्ठ होनेके कारण जैन-ग्रन्थकारोंने उन्हें सम्यक्त्वरत्नाकर, शौचाभरण, गुणरत्नभूषण, देवराज आदि विशेषण भी दिये हैं।
गोम्मटराय या चामुण्डराय तीन कामोंके लिए विख्यात हैं-गोम्मट-संग्रहसूत्र ( गोम्मटसार ), गोम्मट-शिखर या चन्द्रगिरिके ऊपरके गोम्मट-जिन और दक्षिणकुक्कुट-जिन । गोम्मटसारमें आचार्य नेमिचन्द्रने इन तीनोंकी जय मनाई है। इनमेंसे गोम्मट-जिन नेमिनाथकी इन्द्रनीलमणिकी उस प्रतिमाके लिए कहा गया है जो
१ देखो जैन शिलालेखसंग्रहका ३८ वाँ लेख ।
२ आचार्य नेमिचन्द्रने श्लिष्टरूपमें तीर्थंकर भगवानको भी ऊपर लिखे विशेषण देकर चामुण्डरायका संकेत किया है --
क-असहायजिणवरिंदे असहायपरक्कमे महावीरे । क० का० ३९८ ख-णमिऊण गेमिचंदं असहायपरक्कम महावीरं ।-कर्मकाण्ड ८७ ग-णमिऊण मिणाहं सच्चजुहिहिरणमंसियंघिजुगं । क० का ४५१ घ-णमह गुणरयणभूसण-सिद्धतामियमहद्धिभवभाव । क० का० ८९६
गुणरयणभूसणंबुहिमइबेला भरउ भुवणयलं । ,, ९६७ ङ–णमिऊण वड्डमाण कणयणिहं देवरायपरिपुजं । , ३५८