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पद्मचरित और पउमचरिय
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कारण जब लोग उन्हें मारने लगे, तब ऋषभदेव भगवानने भरतको यह कहकर रोका कि हे पुत्र, इन्हें ' मा हण, मा हण'=मत मारो, मत मारो, तबसे उन्हें 'माहण' कहने लगे।
संस्कृत 'ब्राह्मण' शब्द प्राकृतमें 'माहण' (ब्राह्मण) हो जाता है । इसलिए प्राकृतमें तो उसकी ठीक उपपत्ति उक्त रूपसे बतलाई जा सकती है । परन्तु संस्कृतमें वह ठीक नहीं बैठती। क्योंकि संस्कृत 'ब्राह्मण' शब्दमेसे 'मत मारो' जैसी कोई बात खींच तानकर भी नहीं निकाली जा सकती । संस्कृत 'पद्मपुराण'के कर्त्ताके सामने यह कठिनाई अवश्य आई होगी, परन्तु वे लाचार थे । क्योंकि मूल कथा तो बदली नहीं जा सकती, और संस्कृतके अनुसार उपपत्ति बिठानेकी स्वतंत्रता कैसे ली जाय ? इस लिए अनुवाद करके ही उनको सन्तुष्ट होना पड़ा।
यस्मान्मा हननं पुत्र कारिति निवारितः ।
ऋषभेण ततो याता 'माहना' इति ते श्रुतिम् ।। ४-१२२ इस प्रसंगसे यही जान पड़ता है कि प्राकृत ग्रन्थसे ही संस्कृत ग्रन्थकी रचना हुई है।
परन्तु इसके विरुद्ध कुछ लोगोंने तो यह कहने तकका साहस किया है कि संस्कृतसे प्राकृतमें अनुवाद किया गया है । परन्तु मेरी समझमें वह कोरा साहस ही है। प्राकृतसे तो संस्कृतमें बीसों ग्रन्थोंके अनुवाद हुए हैं बल्कि साराका सारा प्राचीन जैनसाहित्य ही प्राकृतमें लिखा गया था । भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि भी अर्धमागधी प्राकृतमें ही हुई थी । संस्कृतमें ग्रन्थ-रचना करनेकी ओर तो जैनाचार्योंका ध्यान बहुत पीछे गया है और संस्कृतसे प्राकृतमें अनुवाद किये जानेका तो शायद एक भी उदाहरण नहीं है । १-मा हणसु पुत्त एए जं उसभजिणेण वारिओ भरहो।
तेण इमे सयल चिय वुच्चंति य 'माहणा' लोए ॥ ४-८४ २ उदाहरणार्थ भगवती आराधना और पंच-संग्रहके अमितगतिसूरिकृत संस्कृत अनुवाद, देवसेनके भावसंग्रहका वामदेवकृत संस्कृत अनुवाद, अमरकीर्तिके 'छक्कोमवएस ' का संस्कृत 'षटकर्मोपदेश-माला' नामक अनुवाद, सर्वनन्दिके लोकविभागका सिंहसूरिकृत संस्कृत अनवाढ आदि ।