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जैनसाहित्य और इतिहास
ग्रन्थ है जिसकी भाषा गुजरातीमिश्रित हिन्दी है । उसके अन्तिम अंशसे मालूम होता है कि विद्यानन्दिके पट्टपर मल्लिभूषण, उनके पट्टपर लक्ष्मीचन्द्रसूरि, फिर वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और उनके शिष्य वादिचन्द्र हुए । यह प्रबन्ध संवत् १६५१ में संघपति धनजी सवाके कहनेसे बना ।
उक्त प्रशस्तिमें जो लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र हैं, वे वही हैं जिनका उल्लेख ज्ञानभूषणने अपने सिद्धान्तसार भाष्यके मंगलाचरण 'लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितं ' पदसे किया है । ज्ञानभूषण शायद सागवाड़ेकी गद्दीके भट्टारक थे । ।
वादिचन्द्रसूरिके पाण्डवपुराण, होलिकाचरित्र और सुभगसुलोचनाचरित नामक
१-मूलसंघमांहां उदयो दिवाकर विद्यानंदि विशाल जी।
तास पाटे गुरु मल्लिभूषण वाणी अमिय रसाल जी ॥ ५ ॥ तसपद लक्ष्मीचंद्र सूरि सोहे मोहे भवियण मन जी । वीरचंद्र नाम जे जपे तस जीव्यूं धन धन्य जी ॥ ६ ॥ प्रगट पाट त अनुक्रमे मानुं ज्ञानभूषण ज्ञानवंत जी। तस पद-कमल-भ्रमर अविचलजस प्रभाचद जयवंत जी ॥ ७ ॥ जगमोहन पाटे उदयो वादीचंद्र गुणाल जी। नवरस गीते जेणें गायो चक्रवर्ति श्रीपाल जी ।। ८ ।। संवत सोल एकावना वर्षे कीधो य परबंध जी। भवियन थिरमन करीने सुणज्यो नित्य संबंध जी ॥ ९ ॥ दान दीजे जिनपूजा कीजे समकित ममें राखिजे जी । सुत्रज भनिए णवकार गणिए असत्य न विभाषिजे जी ॥ १० ॥ लोभ तजीजे ब्रह्म धरीजे साँभल्यान फल एह जी । ए गीत जे नरनारी सुणसे अनेक मंगलतरु गेह जी ॥ ११ ॥ संघपति धनजी सवा बचने कीधो ए परबंध जी ।
केवली श्रीपाल पुत्रसहित तुम्ह नित्य नित्य करो जयकारजी ।। १२ ॥ इति श्री-श्रीपालाख्याने भट्टारकवादिचंद्रविरचित चतुर्थोऽध्यायः समाप्त छ।।श्री।। २ माणिकचन्द-जैनग्रन्थमालाका २१ वाँ ग्रन्थ ।