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वादिचन्द्रसूरि
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गया था, पवनको दूत बनाकर विरह-सन्देश भेजा है । सुन्दर और सरस रचना है । इसके अन्तके पद्यमें' कविके नामके सिवाय और कोई परिचय नहीं दिया गया है परन्तु हमारी समझमें ज्ञानसूयोदयके कर्त्ता वादिचन्द्रकी ही यह रचना होनी चाहिए जो कि प्रभाचन्द्रके शिष्य थे। इसके उपान्त्य पद्य (१०० ) में ' श्रीविजयनृपतेः ' को जो 'श्रीप्रभाचन्द्रकीर्तेः' विशेषण दिया गया है उससे कविके गुरुका नाम भी ध्वनित होता है ।
इटावेके सरस्वतीभंडारमें स्व० गुरुजीने (पं० पन्नालालजी वाकलीवालने) वादिचन्द्रसूरिके पार्श्वपुराण नामके ग्रन्थको देखा था और उसकी प्रशस्ति मेरे पास भेज दी थी। उसमें प्रभाचन्द्रको बौद्ध आदि तमाम दर्शनिकोंसे बड़ा बतला कर कहा है कि उन प्रभाचन्द्र आचार्यके पट्टको सुशोभित करनेवाले वादिचन्द्रसूरिने कार्तिक सुदी पंचमी सं० १६४० में बाल्मीक नगरमें १५०० श्लोकप्रमाण इस पार्श्वपुराणको रचा। बम्बईके पन्नालाल सरस्वती-भवनमें श्रीपाल आख्यान २१४४ नामक एक १-पादौ नत्वा जगदुपकृतावर्ध[र्थ ?]सामर्थ्यवन्तौ विघ्नध्वान्तप्रसरतरणेः शान्तिनाथस्य भक्त्या । श्रोतुं चैतत्सदसि गुणिना वायुदूताभिधानं काव्यं चक्रे विगतवसनः स्वल्पधीर्वादिचन्द्रः ।। २-बौद्धो मूढति बौद्धगर्भितमतिः काणादको मूकति
भट्टो भृत्यति भावनाप्रतिभटो मीमांसको मन्दति । सांख्यः शिष्यति सर्वथैव क...नं वैशेषिको कति यस्य ज्ञानकृपाणतो विजयतां सोऽयं प्रभाचन्द्रमाः ॥१ तत्पट्टमण्डनं सूरिदिचन्द्रो व्यरीरचत् पुराणमेतत्पार्श्वस्य वादिवृन्दशिरोमणिः ॥ २ शून्याब्दे रसाब्जाङ्के वर्षे पक्षे समुज्ज्वले । कार्तिके मासि पंचम्यां वाल्मीके नगरे मुदा ॥ ३ पार्श्वनाथपुराणस्य नानाभेदार्थवाचिनः । पंचदशशतान्यत्र शेया श्लोकाः सुलेखकैः ॥ ४