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जैनसाहित्य और इतिहास
इस ग्रन्थके अन्तमें कविने अपना जो परिचय दिया है उससे मालूम होता है कि वे मूलसंघी ज्ञानभूषणभट्टारकके प्रशिष्य और प्रभाचन्द्रके शिष्य थे। माघसुदी अष्टमी वि० सं० १६४८ के दिन मधूक नगरमें यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ।
मधूक नगर बहुत करके भावनगरका महुआ बन्दैर होगा । महुआ नामका एक स्थान गुजरातमें भी है।
इस नाटककी उत्थानिकामें कमलसागर और कीर्तिसागर नामके दो ब्रह्मचारियोंका उल्लेख है जिनकी आज्ञासे सूत्रधार इस नाटकको खेलनेकी इच्छा प्रकट करता है। ये दोनों वादिचन्द्र के शिष्य जान पड़ते हैं।
इस ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद मैंने सन् १९०९ में जैन-ग्रन्थरत्नाकरकार्यालयद्वारा प्रकाशित किया था, जो बहुत समयसे अप्राप्य है।
वादिचन्द्रसूरिका दूसरा ग्रन्थ ' पवनदूत' नामका एक खण्डकाव्य है जिसकी पद्यसंख्या १०१ है । यह निर्णयसागर प्रेसकी काव्यमालाके तेरहवें गुच्छकमें प्रकाशित हो चुका है। मेरे स्वर्गीय मित्र पं० उदयलालजी काशलीवालने इसे सन् १९१४ में हिन्दी अनुवादसहित जैन-साहित्यप्रसारक कार्यालयद्वारा प्रकाशित किया था।
यह काव्य मेघदूतके ढंगका है । जिस प्रकार कालिदासके विरही यक्षने मेघके द्वारा अपनी पत्नीके पास सन्देश भेजा है उसी प्रकार इसमें उजयिनीके राजा विजयने अपनी प्राणप्रिया ताराके पास जिसे अशनिवेग नामका विद्याधर हर ले
१-मूलसंघे समासाद्य ज्ञानभूषं बुधोत्तमः ।।
दुस्तरं हि भवाम्भोधिं सुतरं मन्वते हृदि ॥ १ ॥ तत्पट्टामलभूषणं समभवदैगम्बरीये मते चञ्चद्वर्हकरः सभातिचतुरः श्रीमत्प्रभाचन्द्रमाः । तत्पद्देऽजनि वादिवृन्दतिलकः श्रीवादिचंद्रो यतिस्तेनायं व्यरचि प्रबोधतरणि व्यान्जसम्बोधनः ॥ २ ॥ वसु-वेद-रसाब्जांके वर्षे माघे सिताष्टमीदिवसे
श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं बोधसंरम्भः ॥ ३ ॥ २ वि० सं० १५०० का महुवा बन्दर ग्रामके लक्ष्मीनारायणके मन्दिरमें एक लेख है । उसमें महुवाका संस्कृत नाम 'मधुमती' लिखा है ।-भावनगर प्राचीन-शोध-संग्रह १-५६-५८