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जंबूदीव पण्णत्ति
प्रगुरू माघनन्दि हों । फिर भी यह ग्रन्थ हमारे अनुमानसे काफी प्राचीन है और उस समयका है जब प्राकृत में ही ग्रन्थ-रचना करने की प्रणाली अधिक थी, जब संघ, गण आदि भेद अधिक रूढ़ नहीं हुए थे ।
और
ग्रन्थके अन्तरंगकी अच्छी तरहसे जाँच करने से संभव है, इस विषय में कुछ अधिक प्रकाश पड़ सके ।
इस ग्रन्थमें भगवान् महावीरके बादकी आचार्य - परम्परा इस प्रकार दी हैविपुलाचलके ऊँचे शिखरपर विराजमान् वर्द्धमान् जिनेन्द्र गौतममुनिको प्रमाणनयसंयुक्त अर्थ कहा । उन्होंने लोहार्थको और लोहार्यने, जिनका नाम सुधर्मा भी है, जम्बूस्वामीको कहा । ये तीनों गणधर, गुणसमग्र और निर्मल चार ज्ञानके धारी थे । ये केवलज्ञानको प्राप्त करके मोक्षको प्राप्त हुए । इनके बाद नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच पुरुषश्रेष्ठ चौदह पूर्व और बारह अंगके धारक हुए । इनके बाद क्रमसे विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिपेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन, ये दस पूर्वधारी हुए । फिर नक्षत्र, यशःपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, और कंस ये पाँच ग्यारह अंगके धारक हुए । इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और अन्तिम लोह ( लोहाचार्य ) ये आचारांग के धारक हुए ।
इस परम्परासे यह एक विशेष बात मालूम हुई कि सुधर्मास्वामी का दूसरा नाम लोहार्य भी था । लोहार्य नामके एक और भी आचार्य हुए हैं जो आचारांगधारी थे | उन्हें दूसरे लोहाचार्य समझना चाहिए | श्रवणबेलगोलकी चन्द्रगुप्तवस्तिके शिलालेख के 'महावीरसवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमर्पि- गौतम गणधर साक्षाच्छिष्यलोहार्य - जम्बु --- XX' आदि वाक्य में जो लोहार्यको गौतमगणधरका साक्षात् शिष्य लिखा है, उसका भी इससे खुलासा हो जाता है । अभीतक इस बातका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिला था कि सुधर्मास्वामी का दूसरा नाम लोहार्य था ।
इस परपम्परामें और त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी परम्परा में कोई अन्तर नहीं है । आचार्य गुणभद्रकृत उत्तर-पुराण, ब्रह्म हेमचन्द्रकृत श्रुतस्कन्ध, और इन्द्रनन्द्रिकृत श्रुतावतारमें भी बिलकुल यही परम्परा दी हुई है । परन्तु हरिवंशपुराण, नन्दिसंघबलात्कारगण-सरस्वतीगच्छकी प्राकृत पट्टावली, सेनगणकी पट्टावली और काष्ठासंघकी पट्टावली में नन्दिकी जगह विष्णु नाम मिलता है । इसके सिवाय नन्दिसंघकी १ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १