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जैनसाहित्य और इतिहास
एक हजार श्रावकोंने भी यही प्रतिज्ञा की। तब राजा एक बड़े भारी संघके साथ चल पड़े । बत्तीस उपवास करके स्तंभ-तीर्थ अर्थात् खंभातमें पहुँचे । राजाका शरीर बहुत खिन्न हो गया था। यह देखकर गुरुने अम्बिकाको बुलाया और उसके द्वारा अपापमठ ( ? ) से एक प्रतिमा मँगवा ली । उसके दर्शन करके राजा प्रतिज्ञामुक्त हो गये ! इसके बाद एक महीने तक दिगम्बरियोंसे विवाद हुआ और अन्तमें अम्बिकाने 'उजिंतसेलसिहरे' आदि गाथाएँ कहकर विवादकी समाप्ति कर दी । (इन गाथाओंमें यह कहा गया है कि जो स्त्रियों की मुक्ति मानता है, वही सच्चा जैन मार्ग है और उसीका यह तीर्थ है। ) इस तरह तीर्थ लेकर, दिगम्बर-श्वेताम्बरोंकी प्रतिमाओंमें नग्नावस्था और अञ्चलिकाका भेद कर दियो ।”
उक्त अवतरणसे दो बातें मालूम होती हैं । एक तो यह कि पहले दोनों की प्रतिमाओंमें कोई भेद नहीं था; और दूसरी यह कि इस घटनाके पहले गिरनारपर '५० वर्षसे दिगम्बरियोंका अधिकार था ।
९-इसी उपदेशतरङ्गिणी ( पृष्ठ २४७ ) में वस्तुपाल मंत्रीके संघका वर्णन है जो उन्होंने सं० १२८५ में निकाला था । उसमें २४ दन्तमय देवालय, १२० काष्ठ देवालय, ४५०० गाड़ियाँ, १८०० डोलियाँ, ७०० सुखासन, ५०० पालकियाँ, ७०० आचार्य, २००० श्वेताम्बर साधु, ११०० दिगम्बर, १९०० श्रीकरी,(?) ४००० घोड़े, २००० ऊँट और ७ लाख मनुष्य थे । यद्यपि यह वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है, तो भी इससे यह मालूम होता है कि उस समय
१ " मुराष्ट्राया गामण्डलग्रामवास्तव्यः सप्तपुत्रः सप्तशतसुभट: १३ शतशकटसंघः १३ कोटिस्वर्णपतिः सं० धाराकः श्रीशत्रुजययात्रां कृत्वा ५० वर्षावधि दिगम्बराधिष्ठितरैवतयात्रावसरे ग्वङ्गारदर्गपसैन्यैः सह युद्धे ७ पुत्र ७ सुभटक्षये श्रीवप्पट्टिप्रतिबोधितं गीपगिरौ श्रीआमभूपति ज्ञात्वा तस्यामनृपस्य मूरिपाचे व्याख्यानोपविष्टाष्टश्राद्धैः समं सं० धाराक: समागतः । तेन दिगम्बरगृहीततीर्थस्वरूपं कथितम् । गुरुभिस्तन्महिमोक्तौ आमनृपेण गिरिनारनेमिवन्दनं विना भोजनाभिग्रहो गृहीतस्ततः संघश्चचाल । १ लक्षं पोष्टिकानान् लक्षं तुरंगमाणाम् , ७ शतानि गजानाम् , विंशतिसहस्राणि श्रावककुलानाम् , ३२ उपवास: स्तम्भतीर्थे प्राप्तः । राशः शरीरं खिन्नम् । गुरुभिरम्बिकां प्रत्यक्षीकृत्य अपापमठात् प्रतिभैका आनीता । नृपाभिग्रहो मुत्कलोजातः । मासमेकं दिगम्बरैः सह वादः, पश्चादम्बिकया ( उज्जित सैलसिहरे' ति गाथया विवादो भग्नः तीर्थ लात्वा दिगम्बरश्वेताम्बरजिनार्चानां नग्नावस्थाञ्चलिकाकरणेन विभेदः कृतः । इति यात्रोपदेशः।"