________________
तीर्थोके झगड़ोंपर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार
२४९
और सिद्धोंके उपासक हैं और उपासना करना किसीकी जमींदारीका कोई खेत जोतना या फसल काट लेना नहीं है, तब उनका अधिकार कम या ज्यादा ठहराया ही कैसे जा सकता है ? कुछ लोग पुराने दस्तावेज और तमस्सुक पेश करके अपना अधिकार सिद्ध करनेका प्रयत्न किया करते हैं; और सम्भव है उनसे उनका अधिकार सिद्ध भी होता हो, परन्तु क्या उनसे यह प्रश्न नहीं किया जा सकता कि उन दस्तावेजोंसे पहले भी तो ये दोनों सम्प्रदाय थे और तब क्या इनसे पहलेके प्रमाण-पत्रोंका तुम्हारे प्रतिपक्षीके पास होना सम्भव नहीं है ? और यह सिद्ध करना तो बाकी ही रह जायगा कि उन दस्तावेजों के लिखनेवाले शासकोंको वैसे किसी सार्वजनिक धर्मस्थानके सम्बन्धमें दस्तावेज लिख देनेका अधिकार था या नहीं। यह सम्भव और स्वाभाविक है कि किसी समयपर किसी सम्प्रदायवालोंका ऐहिक वैभव और प्रभाव बढ़ गया हो और उस समय उनके समीपके तीर्थका प्रबन्ध उनके हाथमें आ गया हो और किसी समय उनके बदले दूसरोंके पास चला गया हो । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि उस तीर्थका वास्तविक अधिकारी अमुक सम्प्रदाय ही था। ऊपर उपदेश-तरंगिणी ग्रन्थका जो अवतरण दिया गया है, उससे मालूम होता है कि संघवी धाराकके समयमें गिरनार तीर्थपर ५० वर्षसे दिगम्बरियोंका अधिकार था और पीछे आम राजाकी कृपासे शायद वही
अधिकार श्वेताम्बीरयोंके हाथमें चला गया। इसी तरहका एक उल्लेख तारंगा सिद्धक्षेत्रके सम्बन्धमें 'कुमारपाल प्रतिबोध' नामक श्वेताम्बर ग्रन्थमें भी मिलता है । यह ग्रन्थ सोमप्रभसूरिका बनाया हुआ है और 'गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज में प्रकाशित हुआ है । इसकी रचनाका समय विक्रम संवत् १२४१ है। इसमें आर्य खपुटाचार्यकी कथामें लिखा है कि
"पहले उसने पर्वतके समीप तारी नामकी बौद्ध देवीका मन्दिर बनवाया; इस कारण इस तीर्थको तारापुर कहते हैं। इसके बाद उसीने फिर वहींपर सिद्धायिका (जैनदेवी) का मन्दिर बनवाया । परन्तु कालवशसे उसे दिगम्बरियोंने ले लिया। अब वहींपर ( कुमारपाल राजा कहते हैं ) मेरे आदेशले जसदेवके पुत्र दंडाधिप
१ तारंगा पर्वतकी तलैटीसे उत्तरकी और लगभग डेढ़ मीलकी दूरीपर तारादेवीकी मूति अब भी मौजूद है और उसपर बौद्धोंकी एक प्रसिद्ध गाथा लिखी हुई है ।