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जैनसाहित्य और इतिहास
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विषयका जो प्रारंभिक हिन्दू साहित्य था उसका बढ़ना तो दूर रहा, वह धीरे धीरे क्षीण होता गया और इधर चूँकि जैन विद्वानोंका विश्वास था कि यह साक्षात् सर्वज्ञ-प्रणीत है, अतएव वे इसे बढ़ाते ही चले गये। ___ यह करणानुयोगका वर्णन केवल इस विषयके स्वतंत्र ग्रन्थोंमें ही नहीं है, इसने प्रथमानुयोग या कथानुयोगादिके ग्रन्थोंका भी बहुत अधिक स्थान रोका है । दिगम्बर संप्रदायके महापुराण, हरिवशपुराण, पद्मपुराणादि प्रधान प्रधान पुराणोंमें तथा अन्य चरित्र-ग्रन्थों में भी यह खूब विस्तारके साथ लिखा गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदायके कथा-ग्रन्थोंका भी यही हाल है । बल्कि उसके तो आगम-ग्रन्थों में भी इसकी विपुलता है । भगवती सूत्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) आदि अंग और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि उपांग ग्रन्थ करणानुयोगके ही वर्णनसे लबालब भरे हुए हैं।
दिगम्बर संप्रदायमें इस विषयका सबसे प्राचीन ग्रन्थ लोक-विभाग है और उस के बादका 'तिलोयपण्णत्ति' ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) । इन दोनों ग्रन्थोंका परिचय हम अन्यत्र दे चुके हैं । इस लेखमें हम जंबुदीवपण्णत्तिका परिचय देना चाहते हैं । इसी नामका और एक ग्रन्थ माथुरसघान्वयी अमितगति आचार्यका भी कहा जाता है । अमितगतिने चन्द्रप्रज्ञप्ति और सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ भी इसी विषयपर लिखे थे। परन्तु ये तीनों ही अभीतक उपलब्ध नहीं हैं । जंबुदीवपण्णत्ति नामका एक ग्रन्थ श्वेताम्बर संप्रदायका भी है । इसका संकलन करनेवाले गणधर सुधर्मास्वामी कहे जाते हैं । यह छहा उपांग है और आगम-शैलीसे लिखा हुआ है ।
दिगम्बरसम्प्रदायकी जंबुदीवपण्णत्तिकी दो प्रतियाँ हमने देखी हैं; एक स्वर्गीय दानवीर शेट माणिकचन्द्रजीके चौपाटीके ग्रन्थ-भाण्डारमें है और दूसरी पूनेके भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिटयूटमें । पहली प्रति सावन वदि १२ सं० १९६० की लिखी हुई है और यह सेठजीने अजमेरसे लिखवाकर मँगवाई थी। दूसरी प्रतिपर उसके लिखे जानेका समय नहीं दिया है; परन्तु वह कुछ प्राचीन मालूम होती है।
१ इसकी श्लोकसंख्या ४१४६ है । मुर्शिदाबादके राय धनपतिसिंह बहादुरके द्वारा यह वाचनाचार्य रामचन्द्रगणिकृत संस्कृतटीका और ऋपि चद्रमाणजीकृत भाषाटीकासहित छप चुका है।