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जंबुदीव-पण्णत्ति
जैनसाहित्यमें करणानुयोगके ग्रन्थोंकी एक समय बहुत प्रधानता रही है। जिन ग्रंथों में ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, और मध्यलोकका; चारों गतियोंका, और युगोंके परिवर्तन आदिका वर्णन रहता है, वे सब ग्रन्थ करणानुयोगके ' अन्तर्गत समझे जाते हैं। आजकल की भाषामें हम जैनधर्मके करणानुयोगको एक तरहसे भूगोल और खगोल-शास्त्रकी समष्टि कह सकते हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें इस विषयके सैकड़ों ग्रन्थ हैं और उनमें अधिकांश बहुत प्राचीन हैं । इस विषयपर जैन लेखकोंने जितना अधिक लिखा है उतना शायद ही संसारक किसी सम्प्रदायके लेखकोंने लिखा हा । परम्परासे यह विश्वास चला आता है कि इन सब परोक्ष और दरवर्ती क्षेत्रों या पदार्थोंका वर्णन साक्षात् सर्वज्ञ भगवानने अपनी दिव्य ध्वनिमें किया था। जान पड़ता है कि इसी अटल श्रद्धाके कारण इस प्रकारके साहित्यकी इतनी अधिक वृद्धि हुई और हजारों वर्ष तक यह जैनधर्मके सर्वज्ञप्रणीत होनेका अकाट्य प्रमाण समझा जाता रहा ।
हिंदुओंके पौराणिक भू-वर्णनको पढ़नेसे ऐसा मालूम होता है कि दो ढाई हजार बरस पहले भारतके प्रायः सभी संप्रदायवालोंका पृथ्वीके आकार प्रकार और द्वीप-समुद्र-पर्वतादिके सम्बन्धमें करीब करीब इसी प्रकारकी धारणायें थीं, जिस प्रकारकी जैनधर्मके करणानुयोगमें पाई जाती हैं । पृथ्वी थालीके समान गोल
और चपटी है, उसमें अनेक द्वीप और समुद्र हैं, द्वीपके बाद समुद्र और समुद्रके बाद द्वीप, इस प्रकार क्रम चला गया है; जम्बूद्वीपके बीचमें नाभिके तुल्य सुमेरु पर्वत है, इत्यादि । परन्तु पीछेके आर्यभट्ट, भास्कराचार्य आदि महान ज्योतिषियोंने पूर्वोक्त विचारों को बिलकुल ही बदल डाला । इसका फल यह हुआ कि इस
१ लोकालोकविभक्तर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव यथामतिरवैति करणानुयोगं च ।।
-रत्नकरण्ड श्रा०