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जैनसाहित्य और इतिहास
प्रशिष्य जिनचन्द्र थे । श्वेताम्बर ग्रन्थों में यही घटना इस रूपमें वर्णित है कि अम्बिकादेवीने श्वेताम्बरोंकी विजय यह कहकर कराई थी कि जिस मार्गमें स्त्रीको मोक्ष माना है, वही सच्चा है । जीत चाहे किसीकी हुई हो,-क्योंकि शास्त्रार्थोमें तो हम आजकल भी यही देखते हैं कि दोनों ही पक्षवाले अपनी अपनी जीतका ढिंढोरा पीटा करते हैं परन्तु ऐसा मालूम होता है कि उक्त विवाद हुआ था
और उसी समयसे दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंमें विद्वेषका वह बीज विशेष रूपसे बोया गया जिससे आगे चलकर बड़े बड़े विषयमय फल उत्पन्न हुए । पिछले दिगम्बर-श्वेताम्बर साहित्यका परिश्रमपूर्वक परिशीलन करनेसे इस घटनाका निश्चित समय भी मालूम हो सकता है; और हमारा अनुमान है कि दोनों ओरके प्रमाणोंसे वह समय एक ही ठहरेगा।
११-मुगल बादशाह अकबरके समयमें हीरविजय सूरि नामके एक सुप्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हुए हैं । अकबर उन्हें गुरुवत् मानता था । संस्कृत और गुजरातीमें उनके सम्बन्धमें बीसों ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन ग्रन्थों में लिखा है कि " हीरविजयजीने मथुरासे लौटते हुए गोपाचल ( ग्वालियर ) की बावन-गजी भव्याकृति मूर्तिके दर्शन किये ।” और यह मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदायकी है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इससे मालूम होता है कि बादशाह अकबर के समय तक भी दोनों सम्प्रदायोंमें मूर्ति-सम्बन्धी विरोध तीव्र नहीं था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्य तक नम मूर्तियोंके दर्शन किया करते थे।
१२---तपागच्छके श्वेताम्बर मुनि शीलविजयजीने वि० सं० १७३१-३२ में दक्षिणके तमाम जैन तीर्थोकी वन्दना की थी जिसका वर्णन उन्होंने अपनी तीर्थ माला ( गुजराती ) में किया है। उससे मालूम होता है कि उन्होंने जैनबद्री, मूडबिद्री, कारकल, हूमच-पद्मावती आदि तमाम दिगम्बर तीर्थों और दूसरे मन्दिरोंकी भक्तिभावसे वन्दना की थी। बड़े उत्साहसे वे प्रत्येक स्थानकी और मूर्तियों की प्रशंसा करते देखे जाते हैं । इससे भी मालूम होता है कि उस समय भी
१ पूर्वोक्त पद्मनन्दिकी ही शिष्यपरम्परामें एक पद्मनन्दि भट्टारक और हुए हैं जिन्होंने शवंजय पर्वतके दिगम्बर मन्दिरकी प्रतिष्ठा संवत् १६८६ में कराई थी।—देखो जनमित्र भाग २२, अंक १५ ।
२ देखो, 'दक्षिणके तीर्थक्षेत्र' शीर्षक लेख पृ० २२३-३८