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दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
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( पार्श्वनाथ ) और शत्रुजयकी यात्रा की है । प्रतिष्ठायें की हैं । वे संघके भक्त
और सुपात्र-दानी हैं । दूसरे धनी पोरबाड़ वंशके सारंगधर' संघवी हैं, जिन्होंने संवत् १७३२ में बड़ी भारी ऋद्धिके साथ चैत्यबन्दना और मालवा, मेवाड़, आबू , गुजरात तथा विमलाचल ( शत्रुजय ) की यात्रा करके अपनी लक्ष्मीको सफल किया है । तीसरे हैं दिगम्बर-धर्मके अनुयायी — जैसल जगजीवनदास' नामके बड़े भारी धनी, जिनकी शुभमति है और जो प्रतिदिन जिन-पूजा करते हैं । उनकी तरफसे सदाव्रत जारी है, जिसमें आठ रुपया रोज खर्च किया जाता है ।
इसके आगे मलकापुर ( जिला बुलढाना ) है । वहाँके शान्तिनाथ भगवान्को प्रणाम करता हूँ । वहाँसे देवलघाट चढ़कर बरारमें प्रवेश किया जाता है । देवलगाँवमें पहुँचकर मैंने नेमीश्वर भगवानको प्रणाम किया। इसके आगे समुद्र तक सर्वत्र दिगम्बर ही दिगम्बर बसते हैं
हवि सघलि दीगम्बर वसिं, समुद्रसुधी ते घy उल्हसि ॥ १३ ॥ फिर 'अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ' का वर्णन करते हैं
शिरपुरनयर अन्तरीक पास, अमीझरो वासिम सुविलास । आगे इस तीर्थक विषयमें एक दन्तकथा लिखी है कि रावणका भगिनीपति खरदूषण राजा बिना पूजा किये भोजन नहीं करता था। एक बार वह वनविहारको निकला और मन्दिर भूल गया । तब उसने बालू और गोबरकी एक प्रतिमा बनाई और नमोकार मन्त्र पढ़कर उसकी प्रतिष्ठा करके आनन्दसे पूजा की। वह प्रतिमा यद्यपि वज्र-सदृश हो गई परन्तु कहीं पीछे कोई इसका अविनय न करे, इसलिए उसने उसे एक जल कूपमें विराजमान कर दिया और वह अपने नगरको चला आया।
इसके बाद उस कुएँके जलसे जब 'एलगराय'का रोग दूर हो गया, तब अन्तरीक्ष प्रभु प्रकट हुए और उनकी महिमा बढ़ने लगी । पहले तो यह प्रतिमा इतनी अधर था कि उसके नीचेसे एक सवार निकल जाता था, परन्तु अब तो केवल एक धागा ही निकल सकता है !
१ वासिम सिरपुरसे १० मील दूर है।
२ जिसे राजा ' एल ' कहा जाता है शायद वही यह 'एलगराय ' है। आकोलाके गेजेटियरमें लिस्वा है कि एल राजाको कोढ़ हो गया था, जो एक सरोवरमें नहानेसे अच्छा हो गया । उस सरोवरमें ही अन्तरीक्षकी प्रतिमा थी और उसीके प्रभावसे ऐसा हुआ था।