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तीर्थों के झगड़ोंपर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार
१-पूर्व कालके तीर्थक्षेत्रों और वर्तमानके तीर्थोंमें जमीन आसमानका अन्तर पड़ गया है । साधारण लोग तो उस अन्तरकी कल्पना भी नहीं कर सकते । शत्रुजय और सोनागिरि पर्वत इस समय जिस तरह नीचेसे ऊपर तक मन्दिरोंसे ढंक गये हैं, पहले इनकी यह दशा नहीं थी। ये सब मन्दिर बहुत ही अर्वाचीन हैं। जिस तरह अनेक तीर्थोपर इस समय भी एक एक दो दो मन्दिर ही देखे जाते हैं, उसी तरह पहले सभी तीर्थोपर थे। पहले इन पर्वतोपर बहुत करके चरणचिह्नोंकी ही स्थापना थी। उन्हींकी सब लोग भक्तिभावसे पूजा वन्दना करते थे;
और इस कारण जुदा जुदा सम्प्रदायोंके बीच झगड़ेका कोई कारण ही उपस्थित न होता था। दिगम्बर-श्वेताम्बर ही क्यों, दूसरे भावुक अजैनोंको भी अपनी श्रद्धा भक्ति चरितार्थ करनेके लिए वहाँ कोई रुकावट नहीं थी।
२-प्रायः जितने जैन तीर्थ हैं, वे सब विपुलजनाकीर्ण नगरों और सब प्रकारके कोलाहलोंसे दूर, ऊँचे पर्वतों और वनोंके बीच स्थापित हैं । जैन धर्मकी प्रकृति ही ऐसी है कि वह संसारके कोलाहलोंसे दूर, निर्जन और शान्त स्थानोंमें रहने की प्रेरणा करती है। मुनि और साधुजन ऐसे ही स्थानोंको पसन्द करते थे और उन्हींकी स्मृतिकी रक्षाके लिए स्मारकस्वरूप ये सब तीर्थ स्थापित हुए थे।
३—इन स्मारकों के दर्शन करने के लिए और अपने भक्तिभावोंको चरितार्थ करनेके लिए बहुत दूर दूरके भक्तजन आया करते थे; परन्तु फिर भी किसीके द्वारा इन स्थानोंकी एकान्त शान्तता नष्ट करनेका प्रयत्न नहीं किया जाता था; क्योंकि इन एकान्त स्थानोंमें संसार-त्यागी और शान्ति-प्रयासी साधजन ही रहते थे। गृहस्थजन इन बातोंको जानते थे और इस कारण वे भक्तिपूरित होनेपर भी तीर्थोकी इस शान्तिमें बाधा डालना उचित नहीं समझते थे ।
४-परन्तु आगे यह बात न रही । साधुजन स्वयं ही वनोंको छोड़कर गाँवोंके समीप आकर रहने लगे और गृहस्थोंके साथ उनका सम्पर्क बढ़ने लगा । धीरे