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तीर्थोके झगड़ोंपर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार
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साधुओंका उदय न होता तो यह दूकानदारी कौन-सा रूप धारण कर लेती, इसकी कल्पना करना भी कठिन है।
६-यह सब हो गया था, तो भी तीर्थोके लिए दिगम्बरी और श्वेताम्बरी झगड़ोंका सूत्रपात नहीं हुआ था । क्योंकि एक तो पहले तीर्थोपर तीर्थंकरों या सिद्धोंके चरणोंकी पूजा होती थी और वे चरण दोनोंको समान रूपसे पूज्य थे । दूसरे इस बातके भी प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीन कालमें दिगम्बरी और श्वेताम्बरी प्रतिमाओंमें कोई भेद न था। दोनों ही नग्न प्रतिमाओंको पूजते थे । श्रद्धेय मुनि जिनविजयजीने (जैनहितैषी भाग १३, अंक ६) में लिखा है कि मथुराके कंकाली टीलेमें जो लगभग दो हजार वर्षकी प्राचीन प्रतिमाएँ मिली हैं, वे नग्न हैं और उनपर जो लेख है, वे श्वेताम्बर कल्यसूत्रकी स्थविरावलीके अनुसार हैं। इसके सिवा १७ वीं शताब्दीमें श्वेताम्बर विद्वान् , पं० धर्मसागर उपाध्यायने अपने 'प्रवचन-परीक्षा' नामक ग्रन्थमें लिखा है कि " गिरनार और शत्रुजयपर एक समय दोनों सम्प्रदायोंमें झगड़ा हुआ, और उसमें शासनदेवताकी कृपासे दिगम्बरोंका पराजय हुआ। जब इन दोनों तीर्थोपर श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकार सिद्ध हो गया, तब आगे किसी प्रकारका झगड़ा न हो सके, इसके लिए श्वेताम्बर संघने यह निश्चय किया कि अबसे जो नई प्रतिमाएँ बनवाई जाय, उनके पाद-मूलमें वस्त्रका चिह्न बना दिया जाय । यह सुनकर दिगम्बरियोंको क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी प्रतिमाओंको स्पष्ट नग्न बनाना शुरू कर दिया । यही कारण है कि संप्रति राजा ( अशोकके पौत्र) आदिकी बनवाई हुई प्रतिमाओंपर वस्त्र-लांछन नहीं है और आधुनिक प्रतिमाओंपर है। पूर्वकी प्रतिमाओंपर वस्त्र-लांछन भी नहीं है और स्पष्ट नमत्व भी नहीं है।" इससे कमसे कम यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पूर्वोक्त विवादके पहले दोनोंकी प्रतिमाओंमें भेद नहीं था और इस कारण दोनों एकत्र होकर अपनी उपासना-वृत्तिको चरितार्थ करते थे। उस समय तक लड़ने झगड़नेका कोई कारण ही नहीं था। परन्तु अब तो दोनोंकी प्रतिमाओं और उपासना-विधिमें इतना अन्तर पड़ गया है कि उसपर विचार करनेसे आश्चर्य होता है । पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि गुजरातके कई प्रसिद्ध शहरों में जिनेन्द्र भगवानके विम्ब आज-कलकी फेशनके वस्त्राभूषण पहनते हैं । वीतराग भगवानकी उनके भक्तोंद्वारा इससे अधिक विडम्बना और क्या हो सकती है ?