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जैनसाहित्य और इतिहास
पृथ्वी-भ्रमणकी उपयोगिता दिखलानेके लिए उन्होंने एक गाथा उद्धृत की है
दिसह विविहचरियं जाणिजइ दुजणसजणविसेसो ।
अप्पाणं च किलजइ हिंडजइ तेण पुहवीए ॥ अर्थात्-विविध प्रकारके चरित देखना चाहिए, दुर्जनों और सजनोंकी विशेषता जाननी चाहिए । इसके लिए पृथ्वी-भ्रमण आवश्यक है । __ इस पुस्तकमें जो कुछ लिखा है लेखकने स्वयं पैदल यात्रा करके लिखा है; फिर भी बहुत-सी बातें सुनी-सुनाई भी लिखी हैं, जैसा कि उन्होंने स्वयं एक जगह कहा है
जगमां तीरथ सुंदरू, ज्योतिवंत झमाल ।
पभणीस दीठां सांभल्यां, सुणतां अमी-रसाल ॥ ३ ॥ अथवा
__ दष्यिण दिसिनी बोली कथा, निसुणी दीठी जे मि यथा ।। १०८ ।। अपनी दक्षिण-यात्राका प्रारम्भ वे नर्मदा नदीके परले पारसे करते हैं और वहींसे दक्षिण देशमें प्रवेश करते हैं ।
नदी निर्बदा पेलि पार, आव्या दध्यिणदेसमझारि ।
मानधाता तीरथ तिहां सुण्यु, शिवधर्मी ते मानि घणुं । मान्धाताके विषयमें इतना ही कहकर कि इसे शिवधर्मी बहुत मानते हैं वे आगे खंडवा जाकर खानदेशके बुरहानपुरका वर्णन करने लगते हैं। यहाँ यह नोट करने लायक बात है कि मान्धाताका उल्लेख करके भी लेखक 'सिद्धवरकूट' का कोई जिक्र नहीं करते हैं और इसका कारण यही जान पड़ता है कि उस समय तक वहाँ सिद्धवरकूट नहीं माना जाता था।
बुरहानपुरमें चिन्तामणि पार्श्वनाथ, महावीर, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, सपार्श्वनाथके मन्दिर हैं और बड़े-बड़े पुण्यात्मा महाजन बसते हैं। उनमें एक ओसवालवंशके भूषण 'छीतू जगजीवन' नामके संघवी ( संघपति ) हैं, जिनकी गृहिणीका नाम ' जीवादे ' है । उन्होंने माणिक्यस्वामी, अन्तरीक्ष, आबू , गोडी
१. सिद्धवरकूट ' तीर्थकी स्थापनापर ' हमारे तीर्थक्षत्र' नामक लेखमें विचार किया गया है। देखो पृ० २०६