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जैनसाहित्य और इतिहास
चिन्तामणि (पार्श्व ) और वीर भगवान् के विहारों ( मन्दिर ) की भेंट की । वहाँ देवराय नामक राजा है जो मिथ्यामती होने पर भी शुभमति है । भोज सरीखा दानी है और मद्य-मांससे दूर रहने वाला है । उसकी सेना में पाँच लाख सिपाही हैं । वहाँ हाथी और चन्दन होते हैं । उसकी आमदनी ६५ लाखकी है जिसमें से १८ लाख धर्म-कार्यमें खर्च होता है । आठ लाख ठाकुर ( कृष्ण ) के लिए, चार लाख जिनदेवके लिए और छह लाख महादेव के लिए | रंगनाथकी मूर्ति सुवर्णकी है । हरि ( कृष्ण ) शयन मुद्रामें हैं और गंगाधर (शिव) वृषभारूढ़ हैं। इनकी पूजा बड़े ठाठसे होती है । इसी तरह सिद्धचक्र और आदिदेव ( ऋषभदेव ) की भी राजाकी ओरसे अच्छी तरह सेवा होती है । देवको चार गाँव लगे हुए हैं, जिनसे अढलक ( अपरिमत ) धन आता है । यहाँके श्रावक बहुत धनी, दानी और दयापालक हैं । राजाके ब्राह्मण मन्त्री विशालाक्ष जिन्हें बेलान्दुर पण्डित भी कहते हैं विद्या, विनय और विवेकयुक्त हैं। जैनधर्मका उन्हें पूरा अभ्यास है । जिनागमों की तीन बार पूजा करते हैं, नित्य एकासन करते हैं और भोजन में केवल बारह वस्तुएँ लेते हैं । जैन शासनको दीप्त करते हैं । राज-धुरधर हैं । उन्होंने ' वीर - प्रासाद' नामका विशाल मन्दिर बनवाया है, जिसमें पुरुष प्रमाण पीतलकी प्रतिमा है । सप्तधातु, चन्दन और रत्नोंकी भी प्रतिमायें
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१ दोड्ड देवराजका समय ई० स० १६५९ - ७२ है और चिक्क देवराजका १६७२१७०४ है । शीलविजयजी के समय में अर्थात् १७८३ के लगभग चिक्कदेवराज ही होना चाहिए । इसने लिंगायत शैवधर्मं छोडकर वैष्णवधर्म स्वीकार किया था । श्रीरंगनाथकी सुवर्ण मूर्ति शायद इसीकी बनवाई हुई है ।
२ मैसूर से दक्षिण-पूर्व ४२ मीलपर येलान्दुर नामका एक गाँव है । विशालाक्ष उसी गाँव के रहनेवाले थे, इसलिए उन्हें येलांदुर पंडित भी कहते थे । चिक्कदेवराज जब नजरबन्द थे तब विशालाक्षने उनपर अत्यन्त प्रेम दिखलाया था । इस लिए जब सम् १६७२ में वे गद्दीपर बैठे इब उन्होंने इन्हें अपना प्रधान मन्त्री बनाया । सन् १६७७ में उन्होंने गोम्मटस्वामीका मस्तकाभिषेक कराया ।
३ संभव है उस समय श्रीरंगपट्टणमें भी धवलादि सिद्धान्त रहे हों और मूडबिद्री में ही पीछे किसी समय वे ले जाये गये हों । हाल ही मालूम हुआ है कि वहाँ उनकी एक नहीं तीन ताडपत्रीय प्रतियाँ हैं ।