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जैनसाहित्य और इतिहास
'जिनवाणीविलासिनीभुजंगम' तो बहुत ही भद्दा है । जिनवाणीको विलासिनी बतलाकर उसका जार बनना बड़ी भारी धृष्टता है।
(२) इस लेखके प्रकाशित होनेपर श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटाका जैनासद्धान्त-भास्कर ( भाग ६ किरण ३ ) में एक लेख प्रकाशित हुआ कि ' क्या पावागढ़ दिगम्बर तीर्थ है ?' उस लेखमें उन्होंने जो कुछ लिखा उसका सारांश यह है
१ धोलकाके महाराजा वीरधवलकी आज्ञासे तेजपाल मंत्रीने गोधराके राजा घूघुलपर आक्रमण किया । विजय-प्राप्ति के बाद धोलका लौटते हुए उन्होंने पावकगिरिकी नैसर्गिक शोभा देखकर विचार किया कि इस पर्वतको जैनमन्दिरसे अलंकृत कर तीर्थरूप बना दूँ और तब उन्होंने वहाँ आश्चर्यकारी ' सर्वतोभद्र' नामक अर्हत्प्रासाद बनवा दिया । इन मंत्रीजीके अस्तित्वका अभीतक पता नहीं लगा है।
पं० लालचन्दजीने 'गुजरातना वीरमन्त्री तेजपालनो विजय' नामक पुस्तकमें लिखा है कि उक्त मन्दिरकी मूर्तियोंको कुछ श्वेताम्बर जैन कारणवश कुछ वर्ष पहले वहाँसे उठा लाये और वे बड़ोदाके 'दादा पार्श्वनाथ' के मन्दिरमें स्थापित कर दी गई। इसके बाद पावागढ़के उक्त श्वेताम्बर मन्दिरको दिगम्बरियोंने अपने अधिकारमें ले लिया।
३ तेरहवीं, पन्द्रहवीं, सोलहवीं और अठारहवीं सदीके कई उल्लेख ऐसे हैं जिनसे मालूम होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पावकगढ़की बहुत महिमा रही है और वह शत्रुजयके जोड़का तीर्थ समझा जाता था ।
४ ' हमारे तार्थक्षेत्र' शीर्षक लेखके अनुसार यहाँ सबसे प्राचीन दिगम्बर प्रतिमा सं० १६४२ की है। किसी प्रमाणसे इसका सिद्धक्षेत्र होना प्रकट नहीं होता। अतः इसकी दिगम्बर तीर्थरूपमें स्थापना अर्वाचीन ही प्रतीत होती है।
अब नाहटाजीके उक्त लेखपर ' मेरा निवेदन' यह हैभाई नाहटाजीके हम कृतज्ञ हैं । उन्होंने अपना उपर्युक्त लेख पं० लालचन्द गाँधीकी लिखी हुई 'गुजरातना वीरमन्त्री तेजपालनो विजय' नामक जिस गुजराती पुस्तकके आधारसे लिखी है उसको भी मँगाकर हमने पढ़ा। उसमें इस प्रकारके बीसों पुष्ट प्रमाण दिये गये हैं, जिनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि कमसे कम विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके बादसे पन्द्रहवीं शताब्दीतक